सत्ताधारी और विपक्षी दल किस तरह एक-दूसरे के विपरीत सोच-विचार रखते हैं, यह भारत छोड़ो आंदोलन की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर संसद में भी देखने को मिला। जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सभी राजनीतिक दलों से वर्ष 2022 तक नए भारत के निर्माण का संकल्प लेने का आह्वान करते हुए देश को जातिवाद, सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार, गंदगी, अशिक्षा, कुपोषण आदि समस्याओं से मुक्त करने के लिए मुहिम छेड़ने की जरूरत जताई वहीं विपक्ष का नेतृत्व कर रही कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने संबोधन से एक सर्वथा अलग तस्वीर पेश की। उनकी मानें तो देश में आज भय और हिंसा का माहौल है और अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी एवं महिलाएं लगातार हिंसा के माहौल में जी रही हैं। उन्होंने मौजूदा माहौल को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ-साथ देश की बहुलता एवं विविधता के लिए भी खतरनाक करार दिया। आखिर प्रमुख विपक्षी दल कुछ चुनिंदा मसलों पर सत्तापक्ष के साथ सहमति दिखाकर देश को कोई सही संदेश देने के लिए तैयार क्यों नहीं हुआ-ठीक वैसे ही जैसे आज से 75 साल पहले अलग-अलग धारा के लोग गांधी जी की पहल पर एकजुट हो गए थे? यदि भारत छोड़ो आंदोलन की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर संसद में आयोजित विशेष आयोजन में राजनीतिक दलों की ओर से देश को अगले पांच सालों में आगे ले जाने का संकल्प लेते समय दलगत राजनीति को पूरी तौर पर परे रख दिया जाता तो शायद जनता के बीच कहीं अच्छा संदेश जाता। आखिर यही तो वे चंद अवसर होते हैं जब राजनीतिक नेतृत्व आम जनता को प्रेरित करने का काम कहीं आसानी से कर सकता है।
आज जब देश तमाम गंभीर समस्याओं से दो-चार है और उनका सही तरह से समाधान न होने का एक बड़ा कारण राजनीतिक दलों की अड़ंगेबाजी और विरोध के लिए विरोध वाली राजनीति है तब फिर उनकी ओर से यह सोचा ही जाना चाहिए कि वे कौन से ऐसे मसले हो सकते हैं जिन्हें संकीर्ण राजनीति से मुक्त रखा जा सकता है? ऐसा इसलिए आवश्यक है, क्योंकि आज कोई भी ऐसा मसला नहीं दिखता जो सभी दलों के एजेंडे में समान रूप से दिखता हो। वे जिन कुछ समस्याओं पर साझा तौर पर गंभीर दिखते भी हैं उनके समाधान के तौर-तरीकों पर एकमत होने से इन्कार करते हैं। जो जीएसटी कानून सभी दलों की भागीदारी से बना उस पर कई दल ऐसे व्यवहार कर रहे हैं जैसे सरकार ने इस कानून को देश पर जबरन थोप दिया। यह और कुछ नहीं राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर क्षुद्र राजनीति का प्रदर्शन है। ऐसी क्षुद्र राजनीति देश को अपेक्षित गति से आगे नहीं ले जा सकती। विपक्ष और विशेष रूप से कांग्र्रेस को यह बुनियादी बात समझनी होगी कि शासन चलाने का अधिकार उसी का होता है जिसे देश की जनता सत्ता सौंपती है। इसी तरह उसे यह भी आत्मसात करना होगा कि हर दल की अपनी विचारधारा होती है और वह उसी हिसाब से अपनी रीति-नीति तय करता है। इसमें दो राय नहीं कि आजादी के आंदोलन का नेतृत्व कांग्र्रेस ने किया और स्वतंत्रता के बाद लंबे समय तक उसने ही देश को आगे ले जाने का काम किया, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि अन्य किसी दल को अपनी तरह से शासन करने का अधिकार नहीं।

[ मुख्य संपादकीय ]