एक समय था जब घरों में खाना बनाते समय पहली रोटी गाय की और आखिरी रोटी कुत्ते के लिए बनायी जाती थी। वक्त बदला तो यह परंपरा धूमिल होती गई और साथ ही कम होता गया जानवरों के प्रति हमारा लगाव। इन दिनों यह खबर सुर्खियों में है कि गांव-गलियों में घूमने वाले कई कुत्ते आदमखोर हो चुके हैं और इंसानों खासकर बच्चों के लिए खतरा बन गए हैं। अकेले सीतापुर में ही एक सप्ताह में इन कुत्तों ने छह मासूम बच्चों का शिकार किया। अन्य जिलों में भी ऐसी घटनाएं लगातार हो रही हैं। ऐसी भी खबरें आ रही हैं कि कुत्तों के डर से लोग बच्चों को घर से नहीं निकलने दे रहे। सवाल है कि अचानक ऐसा क्या हो गया जो कुत्ते इतने हिंसक हो गए। इसका एक बड़ा कारण पशुओं की अवैध कटान पर लगा प्रतिबंध माना जा रहा है। पहले गांवों और मोहल्लों में अवैध रूप से पशुओं को काटा जा रहा था, जिससे आवारा कुत्तों का पेट भरता लेकिन, अब ये भूखे कुत्ते खुद ही झुंड बनाकर शिकार पर निकल रहे हैं। पिछले दिनों रामपुर में ऐसे ही एक झुंड ने पचीस भेड़ों को अपना निवाला बना लिया था। एंटी रैबीज दवाओं की अचानक मांग बढ़ गई है।

शहरों में आवारा कुत्ते पकड़ने की जिम्मेदारी नगर निगम की होती है लेकिन, निगम कुत्ते पकड़ने और उनकी नसबंदी करने के नाम पर औपचारिकता करता है। ज्यादातर जगहों पर तो यह अभियान ही बंद है। कुत्तों को पकड़ने के लिए मामूली ही सही बजट का भी प्रावधान है लेकिन, निगम कर्मचारी संसाधनों का अभाव व टीम की कमी का रोना रोते हैं। उसके अफसर दावा भी करते हैं कि कुत्ते पकड़ने की कार्रवाई लगातार जारी है लेकिन, बढ़ती हिंसक घटनाएं उनके दावों की पोल खोल रही है। ये घटनाएं अनोखी हैं और सरकार की कार्यकुशलता की परीक्षा ले रही हैं। नगर निगम का यह तर्क भी ठीक है कि कुत्तों को पकड़ने के बाद उन्हें रखा कहां जाए। यह चिंता तो सरकार को ही करनी होगी। मासूम बच्चों को अगर कुत्ते खाने लगें तो वह समाज सभ्य कहलाने का अधिकार खो देता है।

[ स्थानीय संपादकीय: उत्तर प्रदेश ]