कहने को पेयजल राज्य सरकार की शीर्ष प्राथमिकताओं में शुमार है, लेकिन आलम बेफिक्री का नजर आता है। यही वजह है कि पूरे सासल पेयजल संकट खड़ा होने लगा है।

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उत्तराखंड में गहराता पेयजल संकट माथे पर चिंता की लकीरें खींच रहा है। स्वाभाविक भी है, जल संरक्षण के प्रयास अभी तक अपेक्षित सफल होते नहीं दिखे, ऊपर से पानी की मांग का ग्राफ तेजी से ऊपर चढ़ रहा है। हालिया सर्वेक्षण के मुताबिक प्रदेश में डेढ़ हजार से ज्यादा इलाके पेयजल संकट से जूझ रहे हैं, इनमें देहरादून, नैनीताल, टिहरी, पौड़ी और अल्मोड़ा की स्थिति ज्यादा चिंताजनक हैं। प्रदेश की जिन 500 योजनाओं में जल प्रवाह 50 से 90 फीसद तक कम हुआ है, वह इन्हीं जिलों में ज्यादा हैं। महकमे के लिए लोगों को जरूरतभर का पानी मयस्सर कराना चुनौती बना हुआ है। पर्वतीय जिलों के कस्बे भी इस समस्या से दो चार हो रहे हैं।

कुछ साल पहले तक पेयजल की आपूर्ति गर्मियों में गड़बड़ाती थी, लेकिन अब यह स्थिति पूरे साल रहने लगी है। कुल मिलाकर समस्या विकराल रूप लेती जा रही है और सिस्टम लकीर पीटने की अपनी आदत से बाज नहीं आ रहा है। यह दीगर बात है कि जल संरक्षण को लेकर हो-हल्ला मचाने में अभी तक की राज्य सरकारें पीछे नहीं रहीं। कभी चाल-खाल, कभी नदी-नाले तो कभी रूफ टॉप रेन वाटर हार्वेस्ंिटग, जल ही कल जैसे नारे दिए गए। इन पर काम करने का राग अभी भी अलापा जा रहा है। लेकिन सरकार के पास इसका कोई सटीक आंकड़ा नहीं है कि आखिरकार इस सबका नतीजा क्या रहा।

सर्वेक्षण, अध्ययन और योजनाओं का खाका खींचने के सिवाय सराकारों के खाते में ऐसी कोई उपलब्धि अभी तक नहीं दिखी, जो भविष्य के लिए उम्मीद जगाए। यही स्थिति उन संस्थाओं की भी रही, जो जल संरक्षण के प्रयासों की आड़ लेकर सरकारी खजाने और वित्तीय मदद करने वाली गैर सरकारी संस्थाओं के बजट को बेहिसाब बटोरती आ रही हैं। इन संस्थाओं से तंत्र ने यह तक जानने की कोशिश नहीं कि कि एवज में हासिल क्या हुआ। कहने में हिचक नहीं जल संरक्षण के मुद्दे पर वातानुकूलित कमरों में बड़ी-बड़ी बातें हुईं, लेकिन धरातल पर उस अनुपात में कुछ नहीं दिखा। पेयजल संकट की जैसी की स्थिति बन गई है और आने वाले कुछ सालों में जिस प्रकार के हालात बनने के आसार बन रहे हैं, उससे पार पाना बड़ी चुनौती है। इस बात को समझना होगा कि केवल चिंता जाहिर करने से कुछ नहीं होने वाला। जिम्मेदारों को फौरी और दीर्घकालिक दोनों ही योजनाओं के बारे में सोचना होगा। साथ ही इसके लिए चरणबद्ध और समयबद्ध कार्यक्रम तय करने होंगे। इतना ही नहीं, जवाबदेही पर भी सरकार को अपना रवैया बदलना होगा।

[ स्थानीय संपादकीय: उत्तराखंड ]