अनावश्यक आपत्तियां
पंजाब में नशे की समस्या को लेकर बनी फिल्म उड़ता पंजाब को लेकर बंबई उच्च न्यायालय ने केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को यह उचित ही हिदायत दी कि उसे जरूरत से ज्यादा छिद्रान्वेषी नहीं होना चाहिए।
पंजाब में नशे की समस्या को लेकर बनी फिल्म उड़ता पंजाब को लेकर बंबई उच्च न्यायालय ने केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को यह उचित ही हिदायत दी कि उसे जरूरत से ज्यादा छिद्रान्वेषी नहीं होना चाहिए। अच्छा होता कि वह लगे हाथ अपना निर्णय भी सुना देता ताकि इस फिल्म की रिलीज को लेकर कायम असमंजस दूर होता और साथ ही बेवजह की तू तू-मैं मैं पर भी विराम लगता। उम्मीद है कि फैसला फिल्म निर्माताओं के पक्ष में ही होगा, लेकिन यह भी हो सकता है कि उच्च न्यायालय की ओर से फिल्म में कुछ संशोधन-परिवर्तन भी सुझाए जाएं। जो भी हो, इसमें दो राय नहीं हो सकती कि इस फिल्म को लेकर फिल्म प्रमाणन बोर्ड की कुछ आपत्तियां हास्यास्पद हैं। इस तरह की आपत्तियों से जाने-अनजाने आम जनता को यही संदेश गया कि राजनीतिक दबाव के चलते फिल्म के कई दृश्यों और संवादों में काट-छांट करने के लिए कहा गया। आखिर पंजाब में नशे की समस्या पर बनी किसी फिल्म से पंजाब या फिर उसके शहरों के नाम हटाने के आग्रह का कोई तुक कैसे हो सकता है? जहां तक फिल्म में गालियों की भरमार की बात है तो अगर उनका बेवजह इस्तेमाल किया गया होगा तो दर्शक खुद ही फिल्म को नकार देंगे। यह समझना कठिन है कि फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने इस फिल्म को लेकर जरूरत से ज्यादा संवेदनशीलता क्यों दिखाई? उसकी अनावश्यक सतर्कता से कुल मिलाकर फिल्म को मुफ्त का प्रचार ही मिला। यह आश्चर्यजनक है कि जब इस बोर्ड का काम फिल्मों को प्रमाणित करना है तब वह उन्हें सेंसर करने का काम क्यों कर रहा है? क्या इसलिए कि आम बोल-चाल में केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को सेंसर बोर्ड कहा जाता है? कम से कम फिल्म प्रमाणन बोर्ड के सदस्यों को तो यह बुनियादी बात पता होनी ही चाहिए कि रचनात्मकता का कोई सीमित दायरा नहीं हो सकता।
यह पहली बार नहीं है जब फिल्म प्रमाणन बोर्ड विवादों में घिरा हो। ऐसा रह-रहकर होता रहता है। पहलाज निहलानी के इस बोर्ड के प्रमुख बनने के बाद यह दूसरा अवसर है जब उनके रुख-रवैये के कारण विवाद खड़ा हुआ। इसके पहल जेम्स बांड की फिल्म स्पेक्टर पर उनकी आपत्तियों के कारण खुद उनका और उनके साथियों का मजाक उड़ा था। इसके साथ ही केंद्र सकरार को भी कठघरे में खड़े होना पड़ा था। हालांकि उसके बाद श्याम बेनेगल की अध्यक्षता में एक समिति गठित कर फिल्म प्रमाणन बोर्ड की भूमिका को बेहतर बनाने की कोशिश की गई थी, लेकिन कोई नहीं जानता कि इस समिति की सिफारिशों का क्या हुआ? यदि श्याम बेनेगल समिति की सिफारिशों पर अमल किया गया होता तो आज जो विवाद खड़ा हुआ और जिसके चलते फिल्म प्रमाणन बोर्ड के साथ केंद्र सरकार की भी किरकिरी हुई उससे बचा जा सकता था। केंद्र सरकार को यह बताना ही चाहिए कि श्याम बेनेगल समिति की सिफारिशों का क्या हुआ और उन पर अमल करने में क्या कठिनाई हो रही है? यह कोई ऐसा मामला नहीं जिसके लिए केंद्र को किसी और का मुंह ताकना पड़े। एक सामान्य प्रशासनिक आदेश से फिल्म प्रमाणन बोर्ड के कामकाज को पटरी पर लाया जा सकता था। जितना जरूरी यह है कि सरकार बिना किसी देरी के अपने हिस्से का काम करे उतना ही यह भी कि खास विचारधारा वाले फिल्म निर्माता बात-बात पर भारत को उत्तर कोरिया और सऊदी अरब की संज्ञा देने से बचें।
(मुख्य संपादकीय)