विंस्टन चर्चिल का एक प्रसिद्ध कथन है कि मगरमच्छ को पालने वाला अंत में उसका ही ग्रास बनता है। भारत दशकों से हिमालय के उस पार स्थित एक विशालकाय मगरमच्छ को चारा देता आ रहा है और बदले में उसके आक्रामक रुख को सहन कर रहा है। यहां बात चीन की हो रही है। चीन में 1949 में कम्युनिस्ट शासन का सूत्रपात हुआ था। भारत दुनिया का पहला देश था जिसने नए चीनी जनवादी गणराज्य को मान्यता दी।

जब चीनी सेना ने स्वतंत्र तिब्बत पर कब्जा कर भारत की बाहरी रक्षा पंक्ति को खत्म करना आरंभ कर दिया तब भी जवाहरलाल नेहरू ने चीनी जनवादी गणराज्य के प्रति नरमी जारी रखी। तिब्बत ने चीन के आक्रमण से बचने के लिए नेहरू से गुहार लगाई, लेकिन उन्होंने मदद से साफ इंकार कर दिया। उन्होंने इस मुद्दे की चर्चा संयुक्त राष्ट्र महासभा में कराने के उसके आग्रह का भी विरोध किया। 1954 में नेहरू ने ब्रिटिश शासन से विरासत में मिले तिब्बत में भारतीय अधिकारों को गंवा दिया और बिना किसी प्रतिकार के तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया। उन्होंने इसके लिए पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर किए।

नेहरू चीन के अंधप्रेम में इस कदर डूब गए कि उन्होंने 1950 में संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस के इस सुझाव को खारिज कर दिया कि भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीन की जगह खाली स्थान ले ले। नेहरू ने आधिकारिक रूप से यह कहा कि उन्होंने इस प्रस्ताव को इसलिए ठुकरा दिया, क्योंकि चीन की खाली सीट पर काबिज होना अनुचित होता। नेहरू की चीन के तुष्टीकरण की नीति का परिणाम यह हुआ कि चीन ने तिब्बत को हड़प लिया। फिर उसने चोरी-छिपे भारतीय क्षेत्रों का अतिक्रमण किया और अंतत: भारत पर हमला किया।

नेहरूवादी तुष्टीकरण के सबक को भुलाने में भारत को दशकों लग गए। 1980 के दशक के बाद फिर से भारतीय सरकारों ने चीन को संतुष्ट किया और भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने तो समय-समय पर उसके समक्ष विनीत भाव दर्शाया। 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी के बीजिंग दौरे को भारत के तिब्बत कार्ड को चीन के समक्ष पूरी तरह आत्मसमर्पण करने के लिए जाना जाएगा। चीनी प्रधानमंत्री और वाजपेयी के बीच जो समझौता हुआ उसमें चीन द्वारा धोखे से हासिल किए गए तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र को जनवादी चीनी गणराज्य के एक भाग के रूप में मान्यता देने की बात लिखी गई थी।

वाजपेयी की इस भारी भूल ने चीन को अरुणाचल प्रदेश पर दक्षिण तिब्बत के रूप में दावा करने का मौका दे दिया। दक्षिण तिब्बत शब्द पहली बार 2006 में सुनने को मिला। चीन को एकतरफा रियायत नरेंद्र मोदी सरकार की नीति का भी हिस्सा नजर आती है।1भारत ने चीन को उन देशों की सूची से बाहर निकाला है जो भारत की चिंता का कारण हैं। इसके अलावा चीनी यात्रियों को आगमन पर ई-वीजा देने की सुविधा से लाभान्वित किया है। मोदी ने वाजपेयी के तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र को चीनी जनवादी गणराज्य का हिस्सा मानने वाले समझौते को भी एक तरह से मौन समर्थन दे रखा है।

भारत ने इसे 2010 में स्वीकारने से इंकार कर दिया था। चीन के प्रतिकूल रवैये के बावजूद उसे चिंता का कारण वाले देशों की सूची से बाहर निकालने का मोदी सरकार का फैसला इस मकसद से था कि चीनी निवेश में बढ़ोतरी हो सके, लेकिन चीनी निवेश में कमी देखी जा रही है। दोनों देशों के बीच व्यापार संतुलन में चीन का पलड़ा पहले से भी भारी होता जा रहा है।

भारत से व्यापार में उसे 60 अरब डॉलर सालाना का फायदा हो रहा है। चीन भारत को कच्चे माल के स्रोत के रूप में इस्तेमाल कर रहा है। भारत उसके लिए उत्पादों को खपाने का एक बाजार है। आखिर मोदी का मेक इन इंडिया कार्यक्रम तब कैसे सफल हो सकता है जब चीन अपना व्यापार हिस्सा बढ़ाने के लिए भारत के मैन्युफैक्चरिंग को प्रभावित करने में लगा हुआ है? वित्तीय वर्ष 2015-16 में भारत को चीन का निर्यात आयात की तुलना में सात गुना अधिक रहा। 1सत्ता में आने के बाद से मोदी ने प्राथमिकता के आधार पर चीन से नजदीकी बढ़ाई। यहां तक कि उन्होंने ब्राजील में ब्रिक सम्मेलन के दौरान अलग से चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग के साथ द्विपक्षीय वार्ता के लिए अपनी जापान यात्र को कई हफ्ते तक स्थगित कर दिया। उनका इरादा चीन को भारत के इंफ्रास्ट्रक्चर विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए प्रेरित करने के साथ-साथ बीजिंग को भारत के प्रति सहयोगी रुख अपनाने के लिए प्रोत्साहित करना था, लेकिन वह अपने इरादे में सफल नहीं हो सके।

चीन ने सीमा विवाद सहित सुरक्षा के मुद्दे पर कड़ा रवैया अख्तियार कर लिया है। उसने न केवल मसूद अजहर जैसे पाकिस्तानी आतंकवादियों को संयुक्त राष्ट्र की कार्रवाई से बचाया, बल्कि पाकिस्तान को शाहीन-3 बैलिस्टिक मिसाइल उपलब्ध कराने के साथ-साथ गुप्त सामरिक मदद भी पहुंचाई। चीन के मामले में तुष्टीकरण की नीति का दुष्परिणाम यह है कि सीमा विवाद पर चीन ने अपना नजरिया तंग किया है। चीन भारत के साथ तब तक सीमा विवाद नहीं सुलझाएगा जब तक कि उसकी कम्युनिस्ट प्रणाली या फिर उसकी अर्थव्यवस्था ध्वस्त नहीं हो जाती। अदूरदर्शिता का परिचय दे रही नई दिल्ली चीन के मामले में अब भी उदारता के रास्ते पर चल रही है।

भारत द्वारा अपनी जगहंसाई कराने का एक वाक्या हाल में देखने को मिला। चीन के समक्ष भारत की तब किरकिरी ही हुई जब उसने जर्मनी में रह रहे विश्व उइगर कांग्रेस के प्रमुख डाल्कुन इसा को पहले वीजा जारी किया और फिर उसे रद कर दिया। चीन ने स्पष्ट किया कि उसने इसा को वीजा देने पर सख्त आपत्ति जताई थी। इसा का वीजा रद करने के संबंध में भारत ने जो तर्क दिया वह खोखला निकला। इसा को वीजा जारी करते समय भारतीय अधिकारी इस बात से पूरी तरह वाकिफ होंगे कि वह अपने खिलाफ इंटरपोल की रेड नोटिस के बावजूद स्वच्छंद रूप से यूरोप और अमेरिका की यात्र करते रहे हैं। कम से कम यह तो स्पष्ट ही है कि धर्मशाला में आयोजित सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए भारत आ रहे अन्य दो चीनी नागरिकों के खिलाफ कोई रेड नोटिस नहीं था, लेकिन भारत ने उन्हें भी अपने यहां आने से रोक दिया।

ये कार्रवाइयां बताती हैं कि भारत अपने आत्मसम्मान और अंतरराष्ट्रीय ख्याति की कीमत पर चीन को संतुष्ट कर रहा है। यहां कार्ल मार्क्स का कथन याद आता है-इतिहास स्वयं को दोहराता है, पहले त्रसदी के रूप में और दोबारा मजाक के रूप में। भारत कमजोर नीति के सहारे चीन का सामना नहीं कर सकता। वह बिना तुष्टीकरण या टकराव के हठी चीन को संभाल सकता है। भारत को यह याद रखना होगा कि वह चीन के साथ बराबरी वाले देश की तरह व्यवहार करके ही उसकी आक्रामकता का सामना कर सकता है।

(लेखक ब्रम्हा चेलानी, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च से संबंद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)