पशुओं की खरीद-बिक्री के नए नियम तय करने के केंद्र सरकार के फैसले का केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल समेत कुछ अन्य राज्यों में जैसा उग्र विरोध हो रहा है उसे लेकर यह समझना कठिन है कि मकसद मीट और चमड़ा उद्योग के सामने आने वाली संभावित समस्याओं को रेखांकित करना है या फिर राजनीतिक रोटियां सेंकना? पशुओं को बेचने और खरीदने के नए नियमों के विरोध के नाम पर गाय-बछड़ों को खुलेआम काटना क्रूरता की पराकाष्ठा के अलावा और कुछ नहीं। ऐसे वीभत्स कृत्य सहन नहीं किए जा सकते। आखिर इससे शर्मनाक और क्या होगा कि कोई पशुओं की खरीद-बिक्री के नियमों में बदलाव का विरोध करने के लिए उनका खुलेआम कत्ल करता फिरे? क्या बछड़े को सार्वजनिक तौर पर काट कर उसका मांस बांटने वाले केरल के कांग्रेसी अथवा बीफ पार्टी का सार्वजनिक आयोजन करने वाले आम दिनों में भी ऐसा ही करते हैं? क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि केंद्र सरकार ने पशुओं की खरीद-बिक्री के नए नियम उन्हें क्रूरता से बचाने के इरादे से बनाए, लेकिन केरल के कांग्रेसजनों ने क्रूरता का ही प्रदर्शन करना जरूरी समझा? केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के अनुसार उसकी ओर से जारी नए नियम राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के इस आदेश के तहत हैं कि देशी नस्ल के मवेशियों की आबादी में गिरावट को रोकने के लिए कोई राष्ट्रीय नीति बने।
यह ठीक है कि नए नियम पशुओं की कालाबाजारी पर रोक लगाने और उनके ऊपर होने वाली क्रूरता को रोकने में सक्षम नहीं नजर आते, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि विरोध के बहाने अराजकता और घोर संवेदनहीनता का प्रदर्शन किया जाए। दुर्भाग्य से कई स्थानों पर ऐसा ही किया जा रहा है। इस दौरान विरोध करने वालों की ओर से यह भी दलील दी जा रही है कि उनके लिए गोमांस खाना जरूरी है। वे यह दलील इस बात को भली तरह जानते हुए भी दे रहे हैं कि देश के ज्यादातर हिस्से में एक बड़ा वर्ग गाय के प्रति आस्था-आदर रखता है। आखिर इस तरह दूसरों की आस्था को चोट पहुंचाना कहां का नियम है? सवाल यह भी है कि कोई किसी खास पशु विशेष के मांस सेवन की जिद कैसे पकड़ सकता है? जब खाने-पीने की आदतें बदलती रहती हैं और सेहत एवं अन्य कारणों से उन्हें बदला भी जाता है तब फिर कुछ लोग गोमांस सेवन को जरूरी साबित करने पर क्यों तुले हुए हैं? क्या यह कोई मौलिक अधिकार है? सवाल यह भी है कि जिन राज्यों में गोमांस सेवन पर रोक नहीं वहां के नेता क्यों बौखलाए हुए हैं? क्या यह बेहतर नहीं होता कि वे अनावश्यक उग्रता दिखाने के बजाय यह बताते कि मीट और चमड़ा व्यवसाय को प्रभावित किए बगैर पशु बाजार का सही तरह नियमन करने और पशुओं को क्रूरता से बचाने का काम किस तरह हो सकता है? अब जब केंद्र सरकार की ओर से स्वयं ही इसके संकेत दिए गए हैं कि वह पशुओं की खरीद-बिक्री संबंधी नियमों में हेर-फेर करने पर विचार कर रही है तब फिर हर किसी को और खासकर राजनेताओं को माहौल खराब करने एवं राजनीति चमकाने से बाज आना चाहिए।

[ मुख्य संपादकीय ]