यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने फोटो के जरिये मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा की तरह दिखाने वाली हावड़ा की भाजपा कार्यकर्ता प्रियंका शर्मा की याचिका स्वीकार कर ली, लेकिन क्या यह बेहतर नहीं होता कि उसे पश्चिम बंगाल में ही राहत मिल जाती? प्रियंका शर्मा पर यह आरोप है कि उसने फोटोशाप के जरिये ममता बनर्जी को प्रियंका चोपड़ा जैसे परिधान में दिखा दिया। हालांकि उसका यह कहना है कि उसने ऐसी फोटो सोशल मीडिया में शेयर भर की थी। सच्चाई जो भी हो, यह ऐसा काम नहीं जिस पर किसी को न केवल गिरफ्तार कर लिया जाए, बल्कि न्यायिक हिरासत के तहत जेल भेज दिया जाए और वह भी 14 दिनों के लिए? क्या किसी लोकतांत्रिक देश में ऐसे किसी कानून के लिए कोई स्थान हो सकता है जिसमें फोटो में मामूली छेड़छाड़ के आरोप में किसी को गिरफ्तार कर 14 दिनों के लिए जेल भेज दिया जाए?

यह समझ आता है कि तृणमूल कार्यकर्ताओं और नेताओं को उक्त फोटो रास न आया हो, लेकिन सोशल मीडिया पर तो इस तरह की फोटो की भरमार है। क्या इन फोटो को अपलोड अथवा उन्हें शेयर करने वाले सभी लोगों को गिरफ्तार कर लिया जाएगा? तृणमूल कांग्रेस के नेताओं और यहां तक कि पश्चिम बंगाल पुलिस के लिए ममता बनर्जी की उक्त फोटो अरुचिकर तो हो सकती है, लेकिन उसे आपत्तिजनक नहीं कहा जा सकता। यदि राजनीतिक द्वेषवश या फिर अन्य किसी कारण से अरुचिकर और आपत्तिजनक में भेद करने से बचा जाएगा तो फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए गुंजाइश खत्म होने के साथ ही लोगों को उत्पीड़न भी शुरू हो जाएगा।

पश्चिम बंगाल पुलिस को इतना तो पता होना ही चाहिए कि प्रियंका चोपड़ा कोई कुख्यात शख्सियत नहीं हैैं कि किसी को उनके जैसे परिधान में दिखाना उसका अपमान करना समझ लिया जाए। क्या पश्चिम बंगाल में हंसी-मजाक पर पाबंदी है या फिर इस राज्य ने अपने लिए कुछ नए नियम गढ़ लिए हैैं? यह सवाल इसलिए, क्योंकि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का कार्टून बनाने के आरोप में एक प्रोफेसर को भी गिरफ्तार किया जा चुका है। नि:संदेह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीम नहीं हो सकती और उसके नाम पर लोगों को कुछ भी कहने या करने की इजाजत नहीं दी जा सकती, लेकिन वह काम भी नहीं होना चाहिए जो पश्चिम बंगाल पुलिस ने किया। यह हैरानी की बात है कि बात-बात पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समक्ष खतरे का शोर मचाने वाले पश्चिम बंगाल पुलिस के हाथों एक युवती के उत्पीड़न पर मौन साधे हैैं।

यदि बंगाल पुलिस ने अपने अधिकारों का बेजा इस्तेमाल किया तो शासन-प्रशासन के उच्च पदस्थ लोगों की यह जिम्मेदारी बनती थी कि वे भाजपा कार्यकर्ता के उत्पीड़न को रोकने के लिए आगे आते। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस युवती को राहत पाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने के लिए विवश होना पड़ा। अपेक्षित केवल यही नहीं कि सुप्रीम कोर्ट उसे राहत प्रदान करे, बल्कि यह भी है कि उसकी ओर से ऐसे कुछ दिशा-निर्देश भी जारी किए जाएं जिससे देश में कहीं भी पुलिस अनावश्यक कार्रवाई करने से बाज आए।

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