आखिरकार विदेश राज्य मंत्री एमजे अकबर को अपना पद छोड़ना ही पड़ा। उन पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिलाओं की संख्या जिस तेजी से बढ़ रही थी उसे देखते हुए उनके समक्ष इसके अलावा और कोई चारा नहीं रह गया था कि वह त्यागपत्र दे दें। उचित होता कि वह विदेश यात्रा से लौटते ही त्यागपत्र देने का फैसला करते, क्योंकि उस समय तक कई महिलाएं उन पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगा चुकी थीं। इनमें कई गंभीर किस्म के और उन्हें शर्मसार करने वाले थे। बावजूद इसके विदेश यात्रा से लौटने पर पहले तो उन्होंने अपने पर लगे आरोप खारिज किए और फिर खुद को कठघरे में खड़े करने वाली महिलाओं पर मानहानि का मुकदमा करने की घोषणा की। वह एक महिला के खिलाफ अदालत पहुंच भी गए।

कायदे से उन्हें अदालत जाने की घोषणा करने के साथ ही मंत्री पद छोड़ देना चाहिए था। उन्होंने ऐसा तब किया जब उन्हें कठघरे में खड़े करने वाली महिलाओं की संख्या और बढ़ गई। इनमें से अधिकतर उनके तहत काम करने वाली पत्रकार थीं। एक क्षण के लिए यह माना जा सकता है कि एक-दो महिलाएं किसी कथित एजेंडे के तहत उनके खिलाफ खड़ी होे गई हों, लेकिन इस पर यकीन करना कठिन है कि एक के बाद एक करीब 20 महिलाओं ने उन पर मिथ्या आरोप लगाए। लोकतंत्र में लोक भावना का अपना विशिष्ट महत्व होता है। उच्च पदों पर बैठे लोगों को न केवल लोक भावना की परवाह करनी चाहिए, बल्कि उदाहरण बनने वाले आचरण का परिचय भी देना चाहिए। एमजे अकबर ऐसा करने में चूक गए। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैैं कि सरकार और पार्टी से मिले संकेतों के बाद ही उन्होंने इस्तीफा देने का फैसला किया होगा, लेकिन ऐसे संकेत तभी दे दिए जाते तो और अच्छा होता जब वह पद न छोड़ने की बात कर रहे थे।

यह स्वाभाविक है कि एमजे अकबर के त्यागपत्र को मी टू अभियान की जीत के तौर पर देखा जाए, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि उन पर लगे आरोपों को प्रमाणित करना एक कठिन काम है। चूंकि एमजे अकबर केंद्र सरकार में मंत्री थे इसलिए उन पर इस्तीफे का दबाव था, लेकिन मी टू अभियान के तहत कठघरे में खड़े अन्य कई लोग किसी सार्वजनिक पद पर नहीं हैैं और इसीलिए उनके खिलाफ कोई कार्रवाई होना भी मुश्किल है। यह मुश्किल इसलिए और है, क्योंकि यौन उत्पीड़न की बरसों पुरानी घटना के सुबूत जुटाना आसान काम नहीं।

स्पष्ट है कि मी टू अभियान की अपनी एक सीमा है। एक तो कोई आम महिला किसी सामान्य-अचर्चित शख्स पर यौन शोषण के आरोप लगाए तो उसका मामला शायद ही सुर्खियां बने और दूसरे, ऐसा कोई सक्षम तंत्र नहीं दिखता जिससे बरसों पुराने मामले को अदालत के समक्ष सही साबित किया जा सके। ऐसे में एक ओर जहां यह जरूरी है कि महिलाएं यौन शोषण के हालात से दो-चार होते ही उसके खिलाफ आवाज उठाएं वहीं दूसरी ओर यह भी कि समाज एक ऐसा माहौल निर्मित करना अपनी जिम्मेदारी समझे जिसमें कोई किसी महिला के मान-सम्मान से खेलने की हिम्मत न जुटा सके।