मोदी सरकार ने बहुचर्चित वक्फ अधिनियम में संशोधन वाला विधेयक लोकसभा में पेश करने के बाद विपक्ष की मांग पर ध्यान देते हुए उसे संयुक्त संसदीय समिति के पास भेजने का जो फैसला लिया, वह इस दृष्टि से सही कदम है, क्योंकि इस समिति में उस पर विस्तार से और संभवतः दलगत राजनीति से ऊपर उठकर विचार हो सकेगा। इससे सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि विपक्ष के पास यह बहाना नहीं रह जाएगा कि सरकार ने एक महत्वपूर्ण विधेयक बिना बहस आनन-फानन पारित करा लिया और उसकी कोई बात नहीं सुनी गई।

ध्यान रहे कि मोदी सरकार के पहले और दूसरे कार्यकाल में अनेक विधेयकों के संसद से पारित होने और उनके कानून में परिवर्तित हो जाने के बाद विपक्ष ने यह माहौल बनाया कि उन पर संसद में चर्चा नहीं होने दी गई। ऐसे कुछ कानूनों को लेकर जनता को बरगलाने का भी काम किया गया। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए और फिर कृषि संबंधी तीन कानूनों को लेकर विपक्ष ने अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए किस तरह जनता को गुमराह किया। देखना है कि शीघ्र गठित होने वाली संयुक्त संसदीय समिति वक्फ संशोधन अधिनियम पर किस तरह विचार करती है और वह कोई आम सहमति कायम कर पाती है या नहीं?

चूंकि ऐसी समितियों की बैठकें सार्वजनिक रूप से नहीं होतीं, इसलिए उनमें विचार-विमर्श कहीं अधिक धीर-गंभीर तरीके से होता है। प्रश्न यह है कि ऐसा ही विचार-विमर्श लोकसभा और राज्यसभा में क्यों नहीं हो सकता? क्या इसलिए, क्योंकि दोनों सदनों की कार्यवाही का टीवी पर सीधा प्रसारण होता है और आमतौर पर सांसद किसी विषय पर कोई सार्थक सुझाव देने के बजाय अपने क्षेत्र की जनता और समर्थकों को कोई राजनीतिक संदेश देना ज्यादा जरूरी समझते हैं?

माना यह गया था कि संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण संसदीय कार्यवाही की गुणवत्ता बढ़ाने में सहायक सिद्ध होगा, लेकिन अभी तक का अनुभव यही अधिक बताता है कि जब से विधानमंडलों की कार्यवाही का सीधा प्रसारण होने लगा है, तबसे विधायी सदनों में सार्थक चर्चा के स्थान पर हंगामा अधिक होने लगा है। इसकी सराहना नहीं की जा सकती कि वक्फ संशोधन अधिनियम के लोकसभा में पेश होते ही विपक्षी दलों ने यह शोर मचाना शुरू कर दिया कि सरकार की नीयत ठीक नहीं है। उसकी ओर से यह घिसा-पिटा तर्क भी दिया गया कि सरकार मुस्लिम समाज के हितों की अनदेखी कर रही है। ऐसे तर्क इसलिए हास्यास्पद हैं, क्योंकि सच यह है कि वक्फ बोर्ड अरबों रुपये की संपत्तियों के स्वामी होने के बावजूद मुस्लिम समाज की भलाई के लिए कुछ ठोस नहीं कर पा रहे हैं। इसके बाद भी विपक्ष सुधार की एक सही पहल पर मुस्लिम समाज के मन में भय का भूत खड़ा करना चाहता है। यह वोट बैंक की सस्ती राजनीति के अलावा और कुछ नहीं।