विभिन्न दलों की चुनाव प्रचार संबंधी गतिविधियों के साथ ही आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन की जैसी खबरें लगातार आ रही हैैं उससे यह नहीं लगता कि हमारे राजनीतिक दल लोकतांत्रिक तौर-तरीकों के अनुरूप चुनाव लड़ने के लिए प्रतिबद्ध हैैं। अब तो यही अधिक लग रहा है कि राजनीतिक दल चुनाव संबंधी आदर्श आचार संहिता की कहीं कोई परवाह नहीं कर रहे हैैं। यह स्थिति तब है जब इस संहिता का निर्माण खुद उन्होंने किया है। समस्या केवल यह नहीं है कि चुनाव प्रचार के मान्य तौर-तरीकों की जमकर अनदेखी की जा रही है, बल्कि यह भी है कि छल-कपट से चुनाव जीतने की कोशिश हो रही हैं।

पैसे बांटकर चुनाव जीतने की प्रवृत्ति किस तरह बढ़ती जा रही है, इसका प्रमाण यह है कि निर्वाचन आयोग अभी तक करीब 32 सौ करोड़ रुपये की नकदी जब्त कर चुका है। नि:संदेह यह नहीं कहा जा सकता कि निर्वाचन आयोग के अधिकारी वह सारी रकम जब्त करने में समर्थ हुए होंगे जो मतदाताओं को बांटने के लिए जमा की गई। यह भी नहीं कहा जा सकता कि उसकी सख्ती के चलते पैसे बांटने का सिलसिला थम गया है। एक समय पैसे बांटकर चुनाव जीतने की प्रवृत्ति केवल दक्षिण भारत में दिखती थी, लेकिन अब वह सारे देश में नजर आ रही है।

चुनाव लड़ने के तौर-तरीकों में गिरावट का एक अन्य प्रमाण यह भी है कि नेता अपने विरोधियों की आलोचना करने में बदजुबान हुए जा रहे हैैं। ऐसे नेताओं के खिलाफ कार्रवाई हो रही है, लेकिन लगता नहीं कि इसका असर पड़ रहा है। नेता एक-दूसरे की आलोचना करते समय केवल भाषा की मर्यादा ही नहीं तोड़ रहे हैैं, बल्कि वे जाति-मजहब को भी भुना रहे हैं। कहीं जातीय आधार पर मतदाताओं को गोलबंद करने की कोशिश हो रही है तो कहीं मजहबी आधार पर। पता नहीं क्यों राजनीतिक दल यह साधारण सी बात समझने को तैयार नहीं कि अगर कुछ जातियों को गोलबंद करने की कोशिश की जाएगी तो शेष जातियां स्वत: गोलबंद होने की कोशिश करेंगी या फिर कोई उन्हें ऐसा करने के लिए कहेगा?

इस बार एक और खराब बात यह भी देखने को मिल रही है कि नेता झूठ का सहारा लेने में लगे हुए हैैं। वे ऐसी-ऐसी बातें कहने में कोई संकोच नहीं कर रहे हैैं जिनका कहीं कोई आधार ही नहीं। इससे भी खराब बात यह है कि यदि कभी उनके झूठ को चुनौती दी जाती है तो वे यह कहकर बच निकलने की कोशिश करते हैैं कि चुनाव प्रचार की गर्मी में गलत बात निकल गई। केवल इतना ही नहीं, नेता फर्जी खबरों का भी सहारा ले रहे हैैं। ऐसा करके वे फर्जी खबरें गढ़ने वालों को बल ही प्रदान कर रहे हैैं। वे सामाजिक माहौल में कटुता घोलने का भी काम कर रहे हैैं। यह सही है कि निर्वाचन आयोग को और अधिकार संपन्न बनाए जाने की आवश्यकता है, लेकिन आखिर राजनीतिक दलों की भी कोई जिम्मेदारी बनती है। अगर वे नियम-कानूनों की अनदेखी करते हुए लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों को ताक पर रखेंगे तो फिर भारतीय लोकतंत्र और साथ ही चुनाव प्रक्रिया के मान-सम्मान की रक्षा कैसे होगी?