राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआइए की ओर से मालेगांव में बम धमाके की आरोपी प्रज्ञा सिंह ठाकुर और पांच अन्य को क्लीनचिट दिए जाने पर हैरत नहीं, क्योंकि एक अर्से से यही कहा जा रहा था कि इन सबके के खिलाफ पर्याप्त प्रमाण नहीं हैं। इस क्लीनचिट के बाद इन सभी की रिहाई का रास्ता साफ दिख रहा है, लेकिन इसी के साथ कांग्रेस एवं अन्य दलों और खासकर खुद को सेक्युलर बताने वाले दलों की ओर से चीख-पुकार भी शुरू हो गई है। इन दलों के कुछ नेता ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे वे जांच टीम में शामिल रहे हों या फिर न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठे रहे हों। आखिर वे किस आधार पर इस आरोप के सहारे देश को गुमराह कर रहे हैं कि मोदी सरकार तो इन लोगों की रिहाई के ही पक्ष में थी? अगर प्रज्ञा और उसके साथियों के खिलाफ मालेगांव में विस्फोट करने की साजिश में शामिल होने के पुष्ट प्रमाण थे तो फिर आज जो नेता जनता को बरगला रहे हैं उन्हें यह बताना चाहिए कि संप्रग शासन के समय इन लोगों को सजा देना क्यों नहीं सुनिश्चित किया जा सका? आखिर 2011 से लेकर 2014 तक एनआइए यह काम क्यों नहीं कर सकी? इसके पहले मुंबई पुलिस का आतंकवाद निरोधीदस्ता (एटीएस) यह काम क्यों नहीं कर सका?

जिन नेताओं को यह लग रहा है कि एनआइए ने राजनीतिक दबाव में गलत फैसला लिया है उन्हें मालेगांव में ही 2006 में हुए बम विस्फोट के सिलसिले में पकड़े गए आठ आरोपियों की रिहाई पर भी कुछ कहना चाहिए, जिन्हें चंद दिनों पहले ही रिहा किया गया है। बीते माह इनकी रिहाई तब हुई जब इसी एनआइए ने कहा कि उसके पास उनके खिलाफ सुबूत नहीं और एटीएस ने जो सुबूत जुटाए थे वे भरोसेमंद नहीं। जब इन आठ लोगों की रिहाई हुई थी तब फिलहाल रुदन कर रहे नेताओं की ओर से यह सवाल उठाया गया था कि आखिर उन्हें कोई मुआवजा क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? अगर वे आठ मुआवजा पाने के अधिकारी हैं तो ये छह क्यों नहीं हैं? आखिर यह दोहरी राजनीति क्यों? क्या इसलिए कि अब हिंदू आतंकवाद का जुमला उछालने में मुश्किल पेश आएगी? अगर हमारे राजनेता संतुलित प्रतिक्रिया व्यक्त करने में सक्षम नहीं तो फिर उन्हें चुप रहना चाहिए।

इसलिए और भी, क्योंकि जांच एजेंसी के कामकाज की परख अदालतें भी करती हैं। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि एनआइए ने जहां प्रज्ञा समेत छह लोगों को क्लीनचिट दी वहीं कर्नल पुरोहित समेत नौ लोगों पर से केवल मकोका हटाया है। इस कानून के हटाने का कारण यह बताया गया कि एटीएस ने खुद ही पुरोहित के घर आरडीएक्स रखवाया था। यह काम तब हुआ था जब हेमंत करकरे एटीएस प्रमुख थे। मुंबई हमले के दौरान वह आतंकियों का निशाना बन गए थे। वह कथित तौर पर इस नतीजे पर पहुंचे थे कि पुरोहित समझौता टेन में विस्फोट की साजिश में भी शामिल थे। यह सही है कि करकरे शहीद के रूप में जाने जाते हैं, लेकिन किसी नतीजे पर न पहुंचने वाली उनकी आधी-अधूरी जांच पर आंख मूंदकर भरोसा करने का कोई कारण नहीं। आज जितना जरूरी यह है कि मालेगांव में 2006 और 2008 में धमाके करने वाले दंड का पात्र बनें, उतना ही यह भी कि जांच के नाम पर खिलवाड़ करने वाले बेनकाब हों।

(मुख्य संपादकीय)