राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणा पत्रों को चाहे जो नाम दें, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि वे लोक लुभावन वायदों का पुलिंदा बनते जा रहे हैं। भाजपा की ओर से संकल्प पत्र के नाम से छत्तीसगढ़ के लिए जारी घोषणा पत्र हो या फिर कांग्रेस की ओर से मध्य प्रदेश के लिए वचन पत्र के नाम से सामने आया घोषणा पत्र, दोनों में लोक लुभावन वायदे दिख रहे हैं। ऐसे ही वायदे कांग्रेस के छत्तीसगढ़ के लिए जारी घोषणा पत्र में भी दिखे थे। चूंकि घोषणा पत्रों के जरिये जनता को आकर्षित करने की होड़ होती है इसलिए उनमें कुछ न कुछ लोक लुभावन वायदे करना राजनीतिक दलों की मजबूरी भी है, लेकिन इस मजबूरी का कोई ओर-छोर तो होना ही चाहिए।

यह इसलिए आवश्यक है कि कई बार राजनीतिक दल बढ़-चढ़कर ऐसी घोषणाएं कर देते हैं जिन्हें पूरा करना आसान नहीं होता। ऐसे दल जब कभी सत्ता में आ जाते हैं तो वे अपने वायदों को पूरा करने की कोशिश में राज्य की वित्तीय हालात को या तो और नाजुक बना देते हैं या फिर केंद्र से अतिरिक्त सहायता की मांग करते हैं। यह भी देखने में आ रहा है कि जब एक राजनीतिक दल लोक लुभावन घोषणाओं की झड़ी लगा देता है तो अन्य राजनीतिक दल भी न चाहते हुए भी ऐसा करने को मजबूर होते हैं।

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को यह निर्देश दे रखे हैं कि वह राजनीतिक दलों को घोषणा पत्रों के जरिये ऐसे वायदे करने से रोके जिन्हें पूरा न किया जा सकता हो, लेकिन ऐसा लगता नहीं कि राजनीतिक दलों की सेहत पर कोई असर पड़ रहा है। दरअसल ऐसा तब तक नहीं हो सकता जब तक राजनीतिक दलों को इसके लिए विवश न किया जाए कि वे अपने वायदों को पूरा करने का तरीका और खासकर यह बताएं कि वे उनके लिए धन का प्रबंध कैसे करेंगे? अच्छा होगा कि चुनाव आयोग राजनीतिक दलों को ऐसे वायदे करने से भी रोकने में समर्थ हो जो सीधे तौर पर मुफ्तखोरी की संस्कृति को बढ़ावा देते हैं या फिर आर्थिक नियमों का घोर उल्लंघन करते हैं। यह समझ आता है कि राजनीतिक दल निर्धन-वंचित तबकों को कुछ सुविधाएं न्यूनतम अथवा रियायती दर पर देने का वायदा करें, लेकिन मुफ्त सुविधाएं या फिर वस्तुएं बांटने का वायदा तो मुफ्तखोरी को बढ़ावा देना ही है।

यह ठीक नहीं कि किसान कर्ज माफी की तमाम घोषणाएं नाकाम होने और उनके चलते खेती के साथ बैंकों की हालत खराब होने के बाद भी कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में किसान कर्ज माफी का वादा कर दिया। यह एक नाकाम उपाय को आगे बढ़ाने के अलावा और कुछ नहीं। ऐसा लगता है कि राजनीतिक दल अपनी पुरानी गलतियों से सबक सीखने के लिए तैयार नहीं।

क्या यह किसी से छिपा है कि मुफ्त बिजली देने की उनकी घोषणाओं से किस तरह राज्य बिजली बोर्डो का बेड़ा गर्क हुआ? चूंकि इसकी कहीं कोई संभावना नहीं कि राजनीतिक दल लोक लुभावन घोषणा पत्रों के मामले में चेतेंगे इसलिए यह आवश्यक है कि चुनाव आयोग को पहले उनकी सख्ती के साथ जांच-परख करने का अधिकार मिले।