इस पर हैरत नहीं कि सपा-बसपा की राहें अलग हो गईं। इन दोनों दलों के अलग हो जाने से राष्ट्रीय लोकदल भी कहीं का नहीं रहा। अतीत में ऐसे गठबंधनों का भविष्य शुभ नहीं रहा है और यह लगभग तय है कि आगे भी राजनीतिक अवसरवाद का परिचय देने वाले गठबंधन असरकारी साबित नहीं होने वाले। वास्तव में जब तक राजनीतिक स्वार्थों का संधान करने के इरादे से विभिन्न दल तालमेल करते रहेंगे तब तक वे कोई ठोस विकल्प देने में नाकाम रहेंगे।

सपा, बसपा और राष्ट्रीय लोकदल आपस में मिलकर भले ही एक राजनीतिक ताकत का प्रदर्शन कर रहे हों, लेकिन इन दलों के नेताओं और खासकर अखिलेश यादव एवं मायावती ने अपने गठबंधन में जिस तरह कांग्रेस को शामिल करना बेहतर नहीं समझा उससे यही साफ हो रहा था कि उनका मूल उद्देश्य अपनी-अपनी राजनीतिक शक्ति बढ़ाना है। यदि कांग्रेस इस गठबंधन का हिस्सा होती तो स्थिति थोड़ी अलग हो सकती थी। कम से कम तब जनता को यह संदेश जाता कि ये सभी दल भाजपा को रोकने को लेकर तनिक गंभीर हैं। चूंकि ऐसा कोई संदेश देने से बचा गया इसलिए नतीजे कहीं अधिक प्रतिकूल रहे।

प्रतिकूल नतीजों का एक कारण यह भी रहा कि यह गठबंधन जातीय अंकगणित पर आधारित था। इस जातीय अंकगणित पर सामाजिक समीकरणों का रसायन इसलिए भारी पड़ा, क्योंकि ये तीनों दल जाति विशेष की अगुआई करने और साथ ही उन्हें तरजीह देने के लिए ही अधिक जाने जाते हैं। इस गठबंधन की एक बड़ी खामी यह भी थी कि उसकी ओर से यह स्पष्ट नहीं किया जा रहा था कि उसका प्रधानमंत्री कौन होगा?

हालांकि मायावती स्वयं को प्रधानमंत्री पद का दावेदार अवश्य बता रही थीं, लेकिन जनता को यह समझ नहीं आ रहा था कि आखिर इतनी कम सीटों पर चुनाव लड़ने वाली पार्टी की नेता प्रधानमंत्री पद की दावेदार कैसे हो सकती हैं? उनकी दावेदारी को तभी बल मिल सकता था जब अन्य दल और खासकर कांग्रेस भी उनके पीछे खड़ी हो जाती, लेकिन उसके अध्यक्ष राहुल गांधी स्वयं ही प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी पेश करने में लगे हुए थे। उनकी इस दावेदारी को तभी ताकत मिल सकती थी जब सपा- बसपा सरीखी पार्टियां उनके साथ खड़ी हो जातीं।

आम जनता को यह समझना मुश्किल हो रहा था कि यदि ये सभी दल नरेंद्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री नहीं बनने देना चाहते तो फिर ढंग से एकजुट होने से क्यों इन्कार कर रहे हैं? इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि भाजपा विरोधी दल और गठबंधन जरूरत से ज्यादा नकारात्मक प्रचार करने में लगे हुए थे। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि इस नकारात्मक प्रचार ने करीब-करीब देश भर में उल्टा असर किया।

हालांकि सपा से अपनी राह अलग करते हुए बसपा प्रमुख मायावती ने भविष्य में उससे तालमेल की संभावना बनाए रखी है, लेकिन यदि ये दोनों दल अपनी राजनीति के तौर-तरीके बदलते नहीं तो इसमें संदेह है कि वे फिर से बड़ी राजनीतिक ताकत हासिल कर सकेंगे। इसी तरह का संदेह जाति विशेष की राजनीति करने वाले अन्य दलों के भविष्य को लेकर भी है। इनमें राष्ट्रीय जनता दल और चौटाला परिवार की पार्टियां प्रमुख हैं।

लोकसभा चुनाव और क्रिकेट से संबंधित अपडेट पाने के लिए डाउनलोड करें जागरण एप