एक अर्से से कांग्रेस को चुनौती दे रहीं बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपनी मुंबई यात्रा के दौरान राहुल गांधी के विदेश दौरों पर कटाक्ष करते हुए जिस तरह यह कहा कि अब संप्रग जैसा कुछ नहीं रह गया है, उससे यह नए सिरे से स्पष्ट हो गया कि वह खुद के नेतृत्व में भाजपा का विकल्प तैयार करने को लेकर गंभीर हैं। पता नहीं उनकी सक्रियता क्या रंग लाएगी, लेकिन इतना अवश्य है कि कांग्रेस को उनसे चिंतित होना चाहिए।

अभी तक विपक्षी एकता की जो भी कोशिश होती रही है, उसमें कहीं न कहीं कांग्रेस भी शामिल रही है। खुद ममता बनर्जी भी ऐसी कोशिश का हिस्सा रही हैं, लेकिन अब वही कांग्रेस को किनारे कर रही हैं। इसका सीधा मतलब है कि वह विपक्षी एकता के मामले में कांग्रेस को अनुपयोगी और अप्रासंगिक मानकर चल रही हैं। यह सामान्य बात नहीं कि एक क्षेत्रीय दल देश के सबसे पुराने राष्ट्रीय दल की अहमियत को इस तरह खारिज करे। यदि तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ऐसा कर रही हैं तो इसके लिए एक बड़ी हद तक कांग्रेस ही जिम्मेदार है। वह अपनी दयनीय दशा और बिखराव के लिए अपने अलावा अन्य किसी को दोष नहीं दे सकती।

कांग्रेस नेतृत्व ने अपनी दिशाहीन राजनीति से न केवल अपनी पार्टी को कमजोर किया है, बल्कि विपक्ष को भी नुकसान पहुंचाया है। कांग्रेस को पर्दे के पीछे से चला रहे राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता को लेकर उनके सहयोगी-समर्थक चाहे जो दावा करें, वह हर दृष्टि से निष्प्रभावी हैं। राजनीति में इतना लंबा समय बिताने के बाद भी वह बुनियादी राजनीतिक परिपक्वता हासिल नहीं कर सके हैं। उनके लिए राजनीति का एक ही मकसद है प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को कोसना। उन्होंने सस्ती नारेबाजी को ही राजनीति समझ लिया है। वह न तो कोई विमर्श खड़ा करने की कोशिश करते हैं और न ही विकल्प देने की।

कुछ इसी तरह की राजनीति प्रियंका गांधी भी कर रही हैं। भले ही कांग्रेस में राहुल और प्रियंका को करिश्माई नेता बताने वालों की कमी न हो, लेकिन सच यही है कि ये दोनों नेता अपनी तमाम सक्रियता के बावजूद कहीं कोई छाप नहीं छोड़ पा रहे हैं। वास्तव में इसीलिए कांग्रेस तेजी के साथ रसातल में जा रही है। यह कांग्रेस के लगातार कमजोर होते चले जाने का ही कारण है कि उसके नेता अन्य दलों की शरण में जा रहे हैं। यदि वरिष्ठ कांग्रेस नेता अपने दल को बचाने को लेकर गंभीर हैं तो फिर उन्हें चिट्ठी-पत्री लिखने के अलावा कुछ ठोस कदम उठाने होंगे, क्योंकि इसके कहीं कोई आसार नहीं दिखते कि सोनिया गांधी पार्टी संचालन की कामचलाऊ व्यवस्था को बदलने का कोई इरादा रखती हैं।