संसद के बजट सत्र के दूसरे चरण में सभी ज्वलंत विषयों पर चर्चा स्वाभाविक ही नहीं आवश्यक भी है, लेकिन मुश्किल यह है कि चर्चा के नाम पर आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति ही अधिक होती है। इसके संकेत भी कांग्रेस के नेताओं के इन बयानों से मिल रहे हैं कि वे दिल्ली के दंगों को लेकर दिल्ली पुलिस और केंद्र सरकार को घेरेंगे। इस सिलसिले में लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने यह आरोप भी लगा डाला कि उनकी समझ से दिल्ली पुलिस और हिंसक तत्वों के बीच कोई साठगांठ थी।

क्या वह यह कहना चाहते हैं कि मोदी सरकार ने तब स्वयं की छवि बिगाड़ने वाले काम किए जब अमेरिकी राष्ट्रपति नई दिल्ली में थे और इस कारण दुनिया की निगाहें भारत की ओर थीं? इससे इन्कार नहीं कि दिल्ली पुलिस ने अपना काम सही तरह से नहीं किया और सरकार भी स्थितियों को सही ढंग से भांप नहीं सकी, लेकिन भयावह दंगों का आरोप उस पर मढ़ना क्षुद्र राजनीति के अलावा और कुछ नहीं। वस्तुत: दिल्ली का माहौल बिगाड़ने में एक बड़ी भूमिका इस क्षुद्र राजनीति की भी है।

कोई भी इसकी अनदेखी नहीं कर सकता और न ही करनी चाहिए कि संसद से बाहर नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ विपक्षी दलों ने किस तरह न केवल जमकर दुष्प्रचार किया, बल्कि लोगों को भड़काने में कोई कसर नहीं उठा रखी। कांग्रेस उन राजनीतिक दलों में सबसे आगे रही जिन्होंने शाहीन बाग सरीखे धरने को बढ़-चढ़कर अपना समर्थन प्रदान किया। यह एक सच्चाई है कि दिल्ली के माहौल को खराब करने में एक बड़ी भूमिका शाहीन बाग के जमावड़े की भी है। करीब अस्सी दिन बीत जाने के बावजूद यह धरना जारी है। इसी के साथ उसके समर्थन और विरोध में बयानों का सिलसिला भी कायम है।

निश्चित रूप से इस धरने के समर्थन और विरोध में दिए गए भड़काऊ बयानों ने माहौल को दूषित करने का काम किया, लेकिन असली गुनहगार तो वे हैं जिन्होंने यह स्थापित करने की चेष्टा की और अभी भी कर रहे हैं कि नागरिकता संशोधन कानून भारत के मुसलमानों के खिलाफ है। यह कोरा झूठ इसके बावजूद फैलाया जा रहा है कि इस कानून का किसी भारतीय नागरिक से कोई लेना-देना नहीं। यदि हमारे राजनीतिक दल गंभीर मुद्दों पर सचमुच चर्चा करना चाहते हैं तो उन्हें कम से कम संसद के भीतर विभाजनकारी और वैमनस्य फैलाने वाली राजनीति करने से बाज आना चाहिए। बेहतर हो कि हमारे राजनीतिक दल यह स्मरण रखें कि संसद का काम देश को दिशा दिखाना है और यह काम वैसे राजनीतिक विमर्श से कदापि नहीं हो सकता जैसा कि इन दिनों देखने को मिल रहा है।