रमेश कुमार दुबे। सान संगठनों, डेयरी क्षेत्र और घरेलू उद्योगों के बढ़ते दबाव और अब तक के मुक्त व्यापार समझौतों के कटु अनुभवों को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समग्र क्षेत्रीय व्यापार समझौते यानी आरसेप पर हस्ताक्षर नहीं किए। प्रधानमंत्री ने भारत सरकार के उच्च स्तरीय सलाहकार समूह की सिफारिशों को ठुकराते हुए गांधी जी के सिद्धांत और अपने जमीर को प्राथमिकता दी।

दूर नहीं की गई भारत की चिंता

दरअसल समझौते को लेकर चल रही वार्ता में भारत द्वारा उठाए गए मुद्दों और चिंताओं को दूर नहीं किया गया था। इसमें भारत अपने उत्पादों के लिए बाजार पहुंच और घरेलू बाजार को बचाने के लिए कुछ वस्तुओं को संरक्षित सूची में रखने का रुख अपनाए हुए था। दूसरी ओर चीन, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड भारत के विशाल बाजार पर अपनी आंखें गड़ाए थे। इसीलिए भारत ने आरसेप से अलग होने का फैसला किया। आरसेप एक व्यापारिक समझौता है, जो सदस्य देशों को एक-दूसरे के साथ व्यापार में कई सहूलियतें देगा। इसमें आसियान के दस सदस्य देशों के साथ-साथ छह देश (चीन, कोरिया, जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और भारत) शामिल हैं।

 कब शुरु हुई थी आरसेप की वार्ता

वास्तव में आरसेप वार्ता 2012 में संप्रग के शासन काल में ही शुरू हुई थी। कांग्रेस की अगुआई वाली संप्रग सरकार के शासन काल में ही भारत ने आसियान समूह के साथ एक बहुपक्षीय मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) किया था जिससे निर्यात के मुकाबले आयात में काफी तेजी से इजाफा हुआ। 2018-19 में आसियान के 10 देशों को जहां भारत ने 37.4 अरब डॉलर का सामान निर्यात किया गया वहीं इस दौरान 59.31 अरब डॉलर का आयात हुआ।

इससे तिलहन, नारियल, काली मिर्च और रबर उत्पादक किसानों की बदहाली बढ़ी। इसी को देखते हुए मोदी सरकार सभी मुक्त व्यापार समझौतों की समीक्षा कर रही है। भले ही प्रधानमंत्री ने आरसेप से कदम खींच लिया हो, लेकिन उन्होंने आसियान देशों के साथ संबंधों के मामले में स्पष्ट कर दिया कि भारत इस क्षेत्र के साथ कारोबारी और मानवीय रिश्तों की प्रगाढ़ता को जारी रखेगा। 

आसियान शिखर सम्मेलन प्रधानमंत्री मोदी का संबोधन

आसियान शिखर सम्मेलन को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने भारत के बहुक्षेत्रीय संबंधों के विस्तार की रूपरेखा प्रस्तुत की। उनके मुताबिक भारत और आसियान के बीच जमीनी, हवाई और समुद्री संपर्क बढ़ाने से क्षेत्रीय व्यापार और आर्थिक विकास को नई ऊंचाई मिलेगी। दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन यानी सार्क की धीमी प्रगति को देखते हुए भारत ने 1990 के दशक में पूर्व की ओर देखो अर्थात लुक ईस्ट नीति अपनाई। इसके तहत दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ आर्थिक संबंधों को प्राथमिकता दी गई, लेकिन आधारभूत ढांचा संबंधी कमजोरियों और समुचित तैयारियों के अभाव में लुक ईस्ट नीति को अपेक्षित कामयाबी नहीं मिली।

2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने लुक ईस्ट नीति को एक नया आयाम देते हुए इसे एक्ट ईस्ट नीति में बदल दिया। इसके तहत दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के साथ आर्थिक सहयोग के साथ-साथ राजनीतिक, रणनीतिक और सांस्कृतिक संबंध सुदृढ़ करने को प्राथमिकता दी गई।


प्रधानमंत्री मोदी एक्ट ईस्ट नीति

प्रधानमंत्री मोदी एक्ट ईस्ट नीति को ऐसे क्रियान्वित कर रहे हैं ताकि दशकों से पिछड़ेपन का शिकार रहे पूवरेत्तर भारत में समृद्धि बढ़े। इसके लिए पूवरेत्तर भारत को दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के गेट-वे के रूप में विकसित कर रहे हैं। मोदी का सर्वाधिक जोर 1947 के पहले के रेल-समुद्री परिवहन नेटवर्क का पुनर्जीवन और नए हाईवे के निर्माण पर है। भारत विभाजन से पहले तक पूवरेत्तर का समूचा आर्थिक तंत्र चटगांव बंदरगाह से जुड़ा हुआ था, लेकिन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के निर्माण से बंदरगाह के अभाव में पूवरेत्तर की आर्थिक गतिविधियां ठप पड़ गईं। पूवरेत्तर की सीमा का 98 फीसद हिस्सा चीन, म्यांमार, भूटान, बांग्लादेश और नेपाल के साथ लगता है। इसीलिए वैश्वीकरण के युग में पूवरेत्तर में विकास की संभावनाएं अधिक हैं।

पूवरेत्तर में कब आएगी समृद्धि

इसी को देखते यह अनुभव किया गया कि पूवरेत्तर में समृद्धि तभी आएगी जब भारत सरकार यहां के उत्पादों की निकासी के लिए परिवहन साधनों का विकास करे। इसीलिए मोदी सरकार विभाजन पूर्व रेल संपर्को को बहाल करने के साथ-साथ पूवरेत्तर प्रांतों की राजधानियों को ब्रॉडगेज रेल लाइन से जोड़ रही है। 2020 तक रेल लाइन इंफाल पहुंचेगी जिसे बाद में म्यांमार तक बिछाया जाएगा। सरकार रेलमार्गो का विद्युतीकरण और हाई स्पीड नेटवर्क बनाने पर भी काम कर रही है। बांग्लादेश के साथ रेल संपर्क एक्ट ईस्ट की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा। आज अगरतला पूरे देश से रेल, सड़क और हवाई मार्ग से जुड़ चुका है।

अगरतला-अखौरा रेल लिंक शुरू होने के बाद कोलकाता और अगरतला के बीच की दूरी 31 घंटे के बजाय महज दस घंटे में पूरी हो जाएगी। सरकार का पूरा जोर चटगांव-माकुम रेल लाइन बनाने पर है। इससे चटगांव बंदरगाह पूवरेत्तर प्रांतों के लिए मुख्य बंदरगाह की तरह काम करने लगेगा।

इसके अलावा सरकार सड़क मार्गो के विकास पर भी ध्यान दे रही है। भारत माला परियोजना के तहत पूवरेत्तर में 5300 किलोमीटर सड़कें निर्माणाधीन हैं। 2023 तक 90 प्रतिशत सड़कें पूरी हो जाएंगी। पूवरेत्तर को दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ जोड़ने में भारत-म्यांमार-थाईलैंड सुपर हाईवे सबसे अहम कदम है। 3200 किलोमीटर लंबा यह हाईवे मोरेह (मणिपुर) से शुरू होकर म्यांमार के मांडले और यांगून होते हुए मेसोट (थाइलैंड) को जोड़ेगा।

विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक के सहयोग से बनने वाला यह हाईवे पूवरेत्तर प्रांतों को दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों से जोड़ने के साथ-साथ व्यापार, निवेश, रोजगार जैसे कई फायदे देगा। इससे पूवरेत्तर के कृषि, बागवानी, खाद्य प्रसंस्करण, इंजीनियरिंग, वस्त्र और दवा उद्योग की आसियान देशों तक आसान पहुंच बन जाएगी। सरकार हवाई संपर्क को भी बढ़ावा दे रही है। पूवरेत्तर के हवाई अड्डों के उन्नयन के साथ-साथ इंफाल, बागडोगरा, गुवाहाटी हवाई अड्डों का विस्तार किया जा रहा है ताकि यहां से अंतराष्ट्रीय उड़ानें संचालित की जा सकें।

भले ही भारत सरकार ने आरसेप से अलग होने का फैसला किया हो, लेकिन उसकी एक्ट ईस्ट नीति में कोई बदलाव नहीं आया है। वह एक्ट ईस्ट नीति को पूर्वी भारत के विकास से जोड़कर उसे एक नया आयाम दे रही है।

लेखक रमेश कुमार दुबे केंद्रीय सचिवालय सेवा में अधिकारी हैं।