style="text-align: justify;"> मोदी सरकार से बाहर होने का फैसला करने के बाद तेलुगु देसम पार्टी ने जिस तरह राजग छोड़ने की घोषणा करने के साथ ही सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया उससे यही पता चल रहा है कि वह इस मामले में अपने प्रतिद्वंद्वी दल वाइएसआर कांग्रेस से पीछे दिखने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती। उसकी ओर से यह जल्दबाजी इसीलिए दिखाई गई ताकि आंध्र प्रदेश की जनता को यह संदेश दिया जा सके कि राज्य के हितों की कथित रक्षा के मामले में तेलुगु देसम पार्टी उतनी ही तत्पर है जितनी कि वाइएसआर कांग्रेस। हैरत नहीं कि अब इन दोनों दलों में इसे लेकर होड़ हो कि सबसे पहले उनके अविश्वास प्रस्ताव संबंधी नोटिस पर गौर किया जाए। जो भी हो, मौजूदा राजनीतिक माहौल में अन्य विपक्षी दलों की ओर से तेलुगु देसम पार्टी अथवा वाइएसआर कांग्रेस के अविश्वास प्रस्ताव को समर्थन मिलने के भरे-पूरे आसार हैं, क्योंकि गोरखपुर, फूलपूर और अररिया लोकसभा उपचुनावों के नतीजे के बाद से विपक्षी दल यह माहौल बनाने में लगे हुए हैं कि ऐसे ही परिणाम आगामी आम चुनाव में आने जा रहे हैं। विपक्ष न केवल ऐसा माहौल बनाने के लिए स्वतंत्र है, बल्कि सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए भी, लेकिन यह बिल्कुल भी ठीक नहीं कि वह अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के फेर में संसद को अखाड़ा बना दे।
देखना यह है कि जो संसद बीते करीब दस दिनों से नहीं चली वह अविश्वास प्रस्ताव के लिए चल पाती है या नहीं? जो भी हो, यह आम जनता की उपेक्षा-अनदेखी के अलावा और कुछ नहीं कि सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों ही यह कहें कि वे सभी ज्वलंत मसलों पर चर्चा करने को तैयार हैं, लेकिन संसद चलने का नाम न ले। कम से कम इस पर तो चर्चा हो ही सकती है कि किसी मसले पर बहस किस नियम के तहत हो? वित्त विधेयक जिस तरह बिना किसी चर्चा के पारित हुआ उससे यही साबित हुआ कि राष्ट्रीय मसलों पर बहस करने में किसी की भी दिलचस्पी नहीं रह गई है।
यह सही है कि इसके पहले भी एक-दो बार वित्त विधेयक बिना किसी चर्चा के पारित हुआ है, लेकिन इसका कोई मतलब नहीं कि खराब परंपराएं नजीर बनें। दुर्भाग्य से फिलहाल ऐसा ही हो रहा है। एक तरह से असंसदीय तौर-तरीकों को अनुकरणीय उदाहरण की तरह पेश किया जा रहा है। विपक्षी दल वित्त विधेयक के बिना चर्चा के पारित होने के लिए सत्तापक्ष पर सारा दोष मढ़कर कर्तव्य की इतिश्री कर सकते हैं, लेकिन सच यही है कि गतिरोध में उनका भी हाथ है। विडंबना यह है कि शोर-शराबे के मामले में लोकसभा जैसी स्थिति राज्यसभा की भी है। राज्यसभा में राजनीतिक दलों का व्यवहार यदि कुछ प्रकट कर रहा है तो यही कि किसी को इसकी परवाह नहीं कि उच्च सदन को कहीं अधिक धीर-गंभीर आचरण का परिचय देना चाहिए। संसद में तथाकथित जनहित या लोकतंत्र हित के नाम पर जिस तरह हल्ला-हंगामा हो रहा है उसे देखते हुए इसके आसार और कम हो गए हैं कि आने वाले संसद सत्र सही तरह चलेंगे और उनमें कोई विधायी कामकाज हो सकेंगे।