ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बीच हुई मुलाकात में दोनों नेताओं ने इस पर सहमति प्रकट कर आपसी संबंधों में भरोसा लौटाने का काम किया कि भविष्य में डोकलाम जैसे विवाद उभरने की नौबत नहीं आने दी जाएगी। ऐसी सहमति वक्त की भी मांग थी और दोनों देशों की जरूरत भी। यह अकल्पनीय है कि जिस डोकलाम विवाद ने दोनों देशों को एक तरह से युद्ध के मुहाने पर खड़ा कर दिया था उसकी छाया भारत-चीन के शासनाध्यक्षों की मुलाकात के वक्त नजर नहीं आई। डोकलाम विवाद को सहमति से सुलझा लिया जाना दोनों देशों की परिपक्व कूटनीति का प्रमाण है, लेकिन यदि इसे भारत की कूटनीतिक जीत के रूप में रेखांकित किया जा रहा तो सिर्फ इसीलिए कि चीन जो चाहता था वह नहीं हो सका। आम धारणा है कि चीन डोकलाम विवाद पर अपना अड़ियल रवैया छोड़ने के लिए इसलिए तैयार हुआ, क्योंकि ब्रिक्स सम्मेलन की मेजबानी उसके पास थी और वह उसमें भारतीय प्रधानमंत्री की उपस्थिति चाहता था, लेकिन पहले ब्रिक्स घोषणापत्र की इबारत और फिर दोनों देशों के नेताओं के बीच की सकारात्मक बातचीत से यह भी संकेत मिल रहा है कि चीनी नेतृत्व ने यह समझा कि वह अपनी मनमानी का प्रदर्शन करके विश्व मंच पर प्रतिष्ठा अर्जित नहीं कर सकता। शायद इसी कारण उसने पाकिस्तान में फल-फूल रहे तमाम आतंकी संगठनों को क्षेत्र की शांति के लिए खतरा माना और साथ ही द्विपक्षीय रिश्तों की नींव पंचशील सिद्धांतों के तहत रखने की जरूरत जताई।
इसका विशेष महत्व है कि खुद चीन संबंध सुधार के मामले में पंचशील सिद्धांतों का स्मरण कर रहा है। इन्हीं सिद्धांतों के आधार पर 1954 में भारत और चीन के बीच संबंध प्रगाढ़ हुए थे और हिंदी-चीनी भाई-भाई के नारे लगे थे। जिस तरह 1962 के युद्ध ने इस नारे की महत्ता खत्म की उसी तरह डोकलाम विवाद ने भी चीन के प्रति संशय को बढ़ाया। इस विवाद के सुलझ जाने के बाद भी आपसी संबंधों को मजबूत करने के लिए यह आवश्यक है कि चीन मतभेदों को विवाद की शक्ल न देने के अपने वायदे के प्रति वचनबद्ध रहे। चीन को यह समझना ही होगा कि भारत से मैत्रीपूर्ण व्यवहार में ही दोनों देशों का हित है। आर्थिक एवं व्यापारिक क्षेत्र में दोनों देशों के बीच सहयोग एक-दूसरे के हितों की पूर्ति में सहायक बनने के साथ दुनिया को दिशा दिखाने और यहां तक कि उसका नेतृत्व करने का काम कर सकता है। जब यह स्पष्ट है कि दोनों ही देशों को एक-दूसरे की जरूरत है तब फिर यह और आवश्यक हो जाता है कि संबंधों में खटास लाने वाला काम किसी की ओर से न किया जाए। अगर चीन यह चाहता है कि भारत उसके हितों की चिंता करे तो यही काम उसे भी करना होगा। बेहतर होगा कि चीन सीमा विवाद सुलझाने को प्राथमिकता प्रदान करे। यह ठीक नहीं कि इस मसले पर दशकों से बातचीत जारी है, लेकिन नतीजा लगभग शून्य है। यह भी दोस्ताना संबंधों की मांग है कि चीन विभिन्न मसलों को तनाव में बदलने से रोकने की व्यवस्था करने पर तैयार हो। ऐसा होने पर ही परस्पर मैत्री भाव दिखेगा भी और बढे़गा भी।

[ मुख्य संपादकीय ]