विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट में दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में चार उत्तर प्रदेश के निकले हैं। चारों प्रमुख नगर हैं। लखनऊ, कानपुर, बनारस और आगरा। प्रशासनिक, औद्योगिक, धार्मिक और पर्यटन के सिरमौर इन शहरों ने यदि देश और दुनिया में अपना नाम बदनाम किया तो जिम्मेदारी किसकी हुई। यदि इन शहरों के लोग सांस रोगों के शिकार हो रहे हैं तो जिम्मेदारी किसकी हुई। यदि इन शहरों का प्रशासन और प्रदेश का पर्यावरण विभाग प्रदूषण फैलाने वाली इकाइयों के आगे संपूर्ण समर्पण कर चुका है तो जिम्मेदारी किसकी हुई। जाहिर है, राज्य सरकार की। भाजपा सरकार को अब शासन में एक वर्ष से अधिक हो चुका है। बेशक रिपोर्ट दो साल पुरानी है लेकिन आगे यह नौबत न आने पाए, इसकी चिंता तो सरकार को ही करनी होगी। यह तो उसे ही देखना होगा कि जिन कारणों से यूपी के शहर बदनाम हुए, वे क्या थे और उन्हें अब कैसे दूर किया जा सकता है।

प्रदूषण के कुछ कारण प्रत्यक्ष हैं। नगर निगमों में व्याप्त भ्रष्टाचार ने सड़कों को संकरा कर दिया है। लखनऊ में तो फिर गनीमत है, बाकी शहरों में सार्वजनिक परिवहन सेवा गायब है, लिहाजा सड़कों पर वाहनों की फौज है। ट्रैफिक नियोजन अब तक किसी भी सरकार की प्राथमिकता नहीं रही। इन कारणों से गाड़ियां बेतहाशा धुआं उगलती हैं और हवा को जहरीला बनाती हैं। लखनऊ छोड़कर किसी भी शहर में हरियाली नहीं मिलेगी। छावनी क्षेत्रों में तो फिर भी गनीमत है लेकिन, उसके बाहर आते ही सड़कों पर वृक्षों का अकाल दिखने लगता है। इनमें से कोई भी समस्या ऐसी नहीं जिसका समाधान न हो। बस, इसके लिए दृढ़ इच्छाशक्ति चाहिए। प्रदेश सरकार भले ही सवा साल पुरानी हो, नगर निगमों में भाजपा की सरकार दशकों से है। इसलिए नगर निगमों की विफलता का दायित्व भाजपा को ही लेना होगा। उसे यह देखना होगा कि शहरों का विकास क्या मास्टर प्लान के अनुसार हुआ। मास्टर प्लान बना भी है या नहीं। पहले की सरकारों में क्या होता रहा है, इसमें लोगों की दिलचस्पी नहीं है। वे जानना चाहते हैं कि आप क्या करने वाले हैं।

[ स्थानीय संपादकीय: उत्तर प्रदेश ]