लुधियाना नगर निगम चुनाव में जिस तरह से पथराव और फायरिंग हुई इसने साबित कर दिया है कि कानून का कोई डर नहीं है और हमारा प्रशासनिक अमला भी अपने कर्त्तव्य का निर्वहन इमानदारी से नहीं कर रहा है। वरना ऐसे कैसे हो सकता है कि आचार संहिता के बावजूद लोग हथियार लेकर सड़कों पर दहशत का माहौल पैदा करें। यदि फायरिंग करने वालों के पास लाइसेंसी हथियार थे तो वह जमा क्यों नहीं हुए? शायद यही वजह है कि दहशत के कारण मतदान के लिए लोग घरों से नहीं निकले और पिछले चुनाव की अपेक्षा इस बार मतदान में सोलह प्रतिशत की गिरावट आई। हालांकि पिछले चुनाव की अपेक्षा वार्ड और मतदाताओं की संख्या में इजाफा होने के बावजूद मत प्रतिशतता बढ़ने की बजाए कम हुई है।

स्थानीय निकाय के चुनावों में यह माना जाता है कि इसमें प्रत्याशियों का जनता से सीधा संवाद व जुड़ाव होता है और मत प्रतिशत बढ़ता है। परंतु लुधियाना में जिस तरह से मतदान का ग्राफ गिरा है उससे यह भी साबित होता है कि शायद हमारी राजनीति का मयार भी गिर रहा है। एक ही शहर में बीस स्थानों पर ईंट-पत्थरों व गोलियों के चलने से शहर में माहौल किसी दंगे से कम नहीं लग रहा था। लोग दहशत के मारे अपने मताधिकार का प्रयोग करने के लिए घरों से ही नहीं निकले । पंजाब में पहले ऐसा नहीं होता था परंतु कुछ वर्षो से हालात बदले हैं और चुनाव दहशत का पर्याय बनने लगे हैं। यह चिंतनीय ही नहीं बल्कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरा भी है। सरकार व प्रशासन को चाहिए कि वह चुनाव के दौरान माहौल खराब करने वाले अराजक तत्वों की फेहरिस्त तैयार करे और उनके खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई अमल में लाए।

[ स्थानीय संपादकीय: पंजाब ]