केदारनाथ आपदा को पांच साल बीतने वाले हैं, लेकिन इससे मिले जख्म आज भी टीस दे रहे हैं। अपनों से हुए बिछोह का गम और घर से बेघर होने का दंश तो है ही, लेकिन सिस्टम की लापरवाही भी कचोटने वाली है। उत्तरकाशी हो या चमोली अथवा रुद्रप्रयाग और पिथौरागढ़, सभी जगह हालात एक जैसे हैं। आलम यह है कि आपदा के दौरान सैकड़ों गांवों को जोड़ने वाले पुल बह गए, लेकिन प्रशासन पांच साल में नए पुल नहीं बना सका। आवाजाही के साधन के तौर पर एकमात्र सहारा ट्रॉली हैं और ये ट्रॉली जिंदगी पर भारी पड़ रही हैं। जर्जर तारों पर सफर का ये अंदाज जिंदगी तो लील ही रहा है, लोगों को उम्रभर का दर्द भी दे रहा है। बीते साल रुद्रप्रयाग में मंदाकिनी नदी के तट पर चंद्रापुरी कस्बे में एक युवती ने जान गंवाई, वहीं एक युवक पांच घंटे मौत से संघर्ष करता रहा। अंतत: भारी मशक्कत के बाद उसे बचाया जा सका। दरअसल हो यह रहा है कि इन ट्रॉली की मरम्मत करने में जिम्मेदार एजेसियां लापरवाही कर रही हैं। ऐसे में तार भी जर्जर हैं ही ट्रॉली की गरारियां भी पुरानी हो चुकी हैं। पुल निर्माण की फाइलें सिस्टम में धूल फांक रही हैं।

उत्तरकाशी जिले के हालात भी कुछ ऐसे ही हैं। जिले में वर्ष 2012 और वर्ष 2013 में आई बाढ़ से जबरदस्त क्षति हुई। नतीजा असी गंगा पर बना पुल बह गया। उत्तरकाशी शहर से मात्र पांच किलोमीटर दूर स्थित इस स्थान पर बेली सीमा सड़क संगठन ने बेली ब्रिज तैयार किया। करीब पांच वर्ष बाद यह ब्रिज ध्वस्त हो गया। इसके बाद नए ब्रिज का निर्माण कराया गया, लेकिन यह चार माह भी नहीं चल पाया और एक बार फिर ब्रिज ढह गया। अब यहां पर बीआरओ ने फिर से नया बेली ब्रिज तैयार किया है। गंगोत्री को देश से जोड़ने वाले इस पुल का महत्व सामरिक दृष्टि से भी है। बावजूद इसके छह साल बाद भी यहां स्थायी पुल निर्माण की प्रक्रिया शुरू नहीं हो पाई है। अकेले उत्तरकाशी जिले में वर्ष 2012 और 2013 की आपदा में 18 पुल धराशायी हुए और इनमें से महज छह पुल का ही निर्माण हो सका है। यानी 12 पुल अभी बनने हैं। जाहिर है उत्तराखंड जैसे अंतरराष्ट्रीय सीमा से सटे प्रदेश में इस तरह का जोखिम उठाना उचित नहीं कहा जा सकता। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार, शासन और प्रशासन इस दिशा में पहल कर त्वरित कार्रवाई करेंगे। सवाल आम आदमी की ही नहीं, देश की सुरक्षा से भी जुड़ा है।

[ स्थानीय संपादकीय: उत्तराखंड ]