राज्यसभा के सभापति के रूप में अपने पहले संबोधन में जगदीप धनखड़ ने जिस तरह न्यायपालिका और विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट को उसकी लक्ष्मण रेखा की याद दिलाते हुए उसकी ओर से खारिज किए गए राष्ट्रीय न्यायिक आयोग का उल्लेख किया, उससे स्पष्ट है कि यह विषय केवल चर्चा तक सीमित रहने वाला नहीं है। यह रहना भी नहीं चाहिए, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट की ओर से सर्वसम्मति से पारित किसी संशोधन विधेयक को खारिज किया जाना कोई साधारण बात नहीं। इसलिए और भी नहीं, क्योंकि इस विधेयक के माध्यम से जिस राष्ट्रीय न्यायिक आयोग का गठन किया गया था, वह उस कोलेजियम व्यवस्था का स्थान लेने वाला था, जिसका संविधान में कोई उल्लेख नहीं।

कोलेजियम व्यवस्था के जरिये सुप्रीम कोर्ट ने न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार अपने हाथों में इस तरह ले लिया कि इन नियुक्तियों में सरकार की भूमिका पोस्ट मास्टर सरीखी रह गई। यह आश्चर्य की बात है कि नए सभापति जगदीप धनखड़ के पहले संसद में किसी ने यह रेखांकित करना आवश्यक क्यों नहीं समझा कि सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय न्यायिक आयोग का गठन करने वाले संविधान संशोधन विधेयक को खारिज कर संसद की संप्रभुता की अनदेखी करने के साथ जनादेश का असम्मान किया? इस विधेयक को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह संविधान के मूल ढांचे के अनुरूप नहीं।

समझना कठिन है कि किसी ने यह प्रश्न क्यों नहीं उठाया कि क्या न्यायाधीशों की ओर से अपने सहयोगियों की नियुक्ति करना संविधान की मूल भावना के अनुकूल है? क्या यह कुछ वैसा ही नहीं, जैसे कार्यपालिका के शीर्ष पदाधिकारी अपने उत्तराधिकारियों का चयन स्वयं करने लगें?

यह ठीक है कि समय-समय पर कोलेजियम व्यवस्था पर सवाल उठते रहे और हाल में कानून मंत्री किरण रिजिजू ने कई अवसरों पर यह कहा कि यह व्यवस्था संविधानसम्मत नहीं, लेकिन क्या इतना ही पर्याप्त है? यह अच्छा हुआ कि जगदीप धनखड़ ने कोलेजियम व्यवस्था को लेकर पहले संसद के बाहर अपनी असहमति प्रकट की और अब संसद में।

देखना है कि अब सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम व्यवस्था में सुधार के लिए सक्रिय होता है या नहीं? यदि वह सक्रिय नहीं होता तो संसद को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यथास्थिति बदले और न्यायाधीशों की नियुक्तियों की ऐसी कोई व्यवस्था बने, जिसमें समस्त शक्ति सुप्रीम कोर्ट के पास निहित न रहे। यह इसलिए होना चाहिए, क्योंकि विश्व के किसी भी प्रमुख लोकतांत्रिक देश में न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्तियां नहीं करते। भारत में वे न केवल ऐसा करते हैं, बल्कि उसकी पूरी प्रक्रिया गोपनीय भी रखते हैं। सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान और पूर्व न्यायाधीश कुछ भी दावा करें, यह नहीं कहा जा सकता कि कोलेजियम व्यवस्था के आकार लेने के बाद सुयोग्य न्यायाधीशों का ही चयन किया जा रहा है।