स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे बहुप्रतीक्षित, महत्वपूर्ण और निर्णायक सिद्ध होने वाला निर्णय आखिरकार आ गया। जो निर्णय आया उसकी प्रतीक्षा दशकों से नहीं, सदियों से की जा रही थी। यह निर्णय करोड़ों-करोड़ लोगों की आकांक्षाओं के अनुरूप ही है। अयोध्या के विवादित स्थल पर राम मंदिर के निर्माण को प्रशस्त करने वाले इस सर्वोच्च निर्णय की अपेक्षा केवल इसलिए नहीं की जा रही थी कि भारतीय समाज के एक बहुत बड़े वर्ग की यह मान्यता थी कि अयोध्या का विवादित स्थल राम की जन्मभूमि है, बल्कि इसलिए भी की जा रही थी कि ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और पुरातात्विक महत्व के प्रमाण इसी ओर संकेत कर रहे थे कि राम मंदिर के स्थान पर मस्जिद का निर्माण किया गया। यह मस्जिद को दिए गए नाम बाबरी से ही नहीं, विवादित ढांचे के आसपास बने अनेक मंदिरों से भी स्पष्ट होता था।

हिंदू समाज मंदिर की जगह मस्जिद के निर्माण के बाद से ही इस पवित्र स्थल पर न केवल अपना दावा कर रहा था, बल्कि उस पर अपना अधिकार पाने के लिए हर संभव तरीके से प्रयत्न भी कर रहा था। इसके दस्तावेजी प्रमाण उपलब्ध हैैं कि ये प्रयत्न लगभग पांच सौ साल से हो रहे थे। विवादित ढांचे के ध्वंस के बाद ऐसे कुछ और साक्ष्य सामने आए जिन्होंने मंदिर के स्थान पर मस्जिद के निर्माण को पुष्ट किया, लेकिन संकीर्ण राजनीतिक कारणों से उनकी अनदेखी की गई। ऐसा इस तथ्य से भली तरह अवगत होने के बाद भी किया गया कि राम इस देश में रचे-बसे हैैं और अयोध्या की तो पहचान ही राम की नगरी के रूप में है।

राम केवल हिंदू समाज के आराध्य ही नहीं, राष्ट्र की सांस्कृतिक चेतना के प्रेरणा पुरुष भी हैैं। यदि समय रहते यह समझा जाता कि राम के बिना भारतीय मानस की कल्पना ही नहीं की जा सकती और अयोध्या के विवादित स्थल पर राम मंदिर के निर्माण को सहर्ष सहमति दी जाती तो उससे परस्पर सद्भावना का ऐसा संचार होता जिसकी अनुभूति पूरा देश करता। ऐसी स्थिति में एक मिसाल कायम होती जो देश ही नहीं, दुनिया को भी प्रेरणा देने का काम करती। दुर्भाग्य से एक महान अवसर गंवा दिया गया। इस पर अफसोस जताने के साथ ही यह समझा जाना चाहिए कि ऐसा किन कारणों से हुआ ताकि भविष्य के लिए सबक सीखा जा सके। यह अच्छा-बिल्कुल अच्छा नहीं हुआ कि आक्रमणकारी बाबर को राम के बराबर खड़ा करने की कोशिश की गई और इस क्रम में यहां तक पूछा गया कि इसके क्या प्रमाण हैैं कि राम का जन्म अयोध्या में हुआ था? 

सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सबको स्वीकार करना ही होगा, क्योंकि इससे ही उस सद्भाव की पूर्ति होगी जिसकी देश को आवश्यकता है। इससे इन्कार नहीं कि इस फैसले से कुछ लोगों को मायूसी होगी, लेकिन कोई भी समाज हो वह नियम-कानूनों से ही चलता है और ऐसा कोई फैसला नहीं हो सकता जो सबको समान रूप से संतुष्ट कर सके। चूंकि सर्वोच्च न्यायालय से बड़ी कोई अदालत नहीं इसलिए उसके फैसले को स्वीकार करने के अलावा और कोई उपाय भी नहीं। अब उचित यही है कि अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण की अभिलाषा राष्ट्रीय आकांक्षा का रूप ले और उसमें सभी की सहमति शामिल हो। यह मंदिर एक ऐसी साझा सांस्कृतिक धरोहर बनना चाहिए जो उन मूल्यों और मर्यादाओं का प्रतिनिधित्व करे जिनके संदर्भ में रामराज्य का उल्लेख किया जाता है।

मर्यादा पुरुषोत्तम माने जाने वाले राम किसी एक समुदाय या वर्ग तक सीमित नहीं किए जा सकते। इसका सबसे बड़ा प्रमाण रामराज्य की कल्पना साकार होने की कामना है। यह कामना और बलवती होनी चाहिए और इसमें सभी को भागीदार बनना चाहिए। इससे ही अयोध्या में बनने वाले राम मंदिर की भव्यता और महत्ता स्थापित होगी। राम मंदिर के निर्माण की दिशा में आगे बढ़ने के साथ ही अयोध्या में मुस्लिम पक्ष को मस्जिद निर्माण के लिए जो पांच एकड़ जमीन दी गई उसके प्रति भी सभी की सहमति होनी चाहिए। यह सहमति व्यक्त करने के साथ-साथ यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट ने आस्था के आधार पर निर्णय नहीं दिया, लेकिन उसने आस्था की अनदेखी भी नहीं की। शायद इसीलिए उसने यदि रामलला को विवादित स्थल सौंपा तो मस्जिद के लिए भी भूमि उपलब्ध कराने का आदेश दिया।

स्पष्ट है कि न्याय केवल हुआ ही नहीं, बल्कि होते हुए दिखा भी है। अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के साथ ही एक अभिलाषा पूरी हुई, लेकिन अभिलाषाएं और भी हैैं और वे सब तब पूरी होंगी जब राष्ट्रीय एकजुटता और समरसता को राम का काज समझा जाएगा। यह समय हर्ष-विषाद का नहीं, बल्कि संतोष भाव के साथ राम मंदिर के साथ-साथ राष्ट्र निर्माण के लक्ष्य को पूरा करने को सर्वोच्च प्राथमिकता देने का है। ऐसा करते हुए यह ध्यान रखना ही होगा कि सबका कल्याण ही रामराज्य की संकल्पना है।