सुप्रीम कोर्ट ने इस तथ्य का संज्ञान लेकर बिल्कुल सही किया कि बीते वर्ष सड़कों पर गड्ढों के कारण साढे़ तीन हजार से अधिक लोगों की मौत हुई, क्योंकि राज्य सरकारें इसके प्रति तनिक भी चिंतित नहीं कि सड़कों के गड्ढे जानलेवा साबित हो रहे हैैं। इसका प्रमाण इससे मिला कि केंद्र सरकार की ओर से जुटाए गए आंकड़ों को स्वीकार करने के बजाय राज्य सरकारों ने उनसे कन्नी काटने की कोशिश की। कुछ राज्यों ने तो यह तर्क दिया कि उनके परिवहन विभाग ने इन आंकड़ों का सत्यापन नहीं किया है। यह तर्क असत्य के सहारे जिम्मेदारी से बचने की कोशिश के अलावा और कुछ नहीं।

क्या राज्य सरकारें यह कहना चाहती हैैं कि उनके अधिकारियों ने बिना किसी जांच-परख के सड़कों पर गड्ढों के कारण होने वाली मौतों का विवरण केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय को उपलब्ध करा दिया? यदि वास्तव में ऐसा कुछ है तो यह गैर जिम्मेदारी की पराकाष्ठा है। दुर्भाग्य से ऐसे ही गैर-जिम्मेदाराना रवैये का परिचय सड़कों का रखरखाव करने में भी दिया जा रहा है और यही कारण है कि महज एक वर्ष में सड़कों पर गड्ढों की वजह से 3,597 लोग काल के गाल में समा गए। इन मौतों के लिए राज्यों के लोक निर्माण विभाग और सड़कों का निर्माण करने वाले अन्य विभाग ही जिम्मेदार हैैं। चूंकि जिम्मेदार लोग जवाबदेही से मुक्त हैैं इसलिए अपने देश में सड़कें कुछ ज्यादा ही बदहाल होती हैैं। समझना कठिन है कि राज्य सरकारें सड़कों का निर्माण करने वाले विभागों को जवाबदेह बनाने के लिए क्यों नहीं तैयार? हैरत नहीं कि इसका कारण यह हो कि केंद्र सरकार भी अपने लोक निर्माण विभाग को राजमार्गों की बदहाली के लिए पर्याप्त जवाबदेह नहीं बना पा रही है।

कई बार सड़कें बनते ही गड्ढा युक्त होनी शुरू हो जाती हैैं, लेकिन सरकारी अमला उनकी सुध नहीं लेता और आम जनता को यह पता ही नहीं होता कि वे बदहाल सड़कों की शिकायत कहां और किससे करें? यदि कभी संबंधित विभाग या सक्षम अधिकारी का पता-ठिकाना खोजकर शिकायत की भी जाती है तो कोई सुनने वाला नहीं होता। नतीजा यह होता है कि गड्ढे वाली सड़कें जल्द ही चलने काबिल नहीं रह जातीं, लेकिन तमाम जोखिम के बाद भी उनका इस्तेमाल करना छोड़ा नहीं जा सकता। दरअसल इन्हीं स्थितियों में वे जानलेवा साबित होती हैैं। राज्य सरकारें किस तरह सड़कों के रखरखाव को लेकर गंभीर नहीं, इसका पता इससे भी चलता है कि उन्होंने धन की कमी का रोना रोया।

आखिर बनी-बनाई सड़कों को फिर से बनाने में धन की कमी क्यों नहीं आड़े आती? क्या ऐसी सड़कें नहीं बनाई जा सकतीं जो चार-छह साल मरम्मत की मांग न करें? बेहतर हो कि सुप्रीम कोर्ट इसकी तह तक जाए कि आखिर वही-वही सड़कें हर साल क्यों बनती रहती हैं और क्या कारण है कि फुटपाथ बेवजह बार-बार दुरूस्त होते रहते हैैं? यदि इस सवाल का जवाब ईमानदारी से तलाशा जाए तो भारी भ्रष्टाचार के तौर-तरीकों के अलावा और कुछ नहीं मिलेगा। अगर सड़कों की मरम्मत एवं निर्माण के अनवरत सिलसिले की ढंग से कोई जांच हो सके तो शायद सबसे बड़ा भ्रष्टाचार सामने आए।