लोकपाल व्यवस्था के निर्माण में देरी को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भले ही संबंधित सर्च कमेटी को अपना काम पूरा करने यानी नामों का पैनल फरवरी के अंत तक तैयार करने का निर्देश दिया हो, लेकिन लगता नहीं कि हाल-फिलहाल लोकपाल का गठन होने वाला है। इससे संबंधित मामले की अगली सुनवाई अब मार्च में होगी। तब तक आम चुनावों की घोषणा हो सकती है। ऐसे में लगता नहीं कि नई सरकार के गठन के पहले देश को लोकपाल मिल पाएगा। यह एक विडंबना ही है कि जिस लोकपाल के लिए इतना बड़ा आंदोलन हुआ उसके प्रति अब कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई जा रही है।

लोकपाल संबंधी कानून बने हुए चार वर्ष से अधिक बीत चुके हैैं, लेकिन अभी तक उसके गठन संबंधी कुछ बुनियादी काम ही नहीं हो सके हैैं। इस सबसे यही अधिक लगता है कि भ्रष्टाचार से लड़ने वाली इस व्यवस्था के निर्माण की जरूरत ही नहीं महसूस की जा रही है। यह समझ आता है कि केंद्र सरकार लोकपाल के गठन को लेकर बहुत उत्साहित नहीं, लेकिन केवल उसे ही दोष नहीं दिया जा सकता। लोकपाल के लिए नामों का पैनल तैयार करने का काम जिस सर्च कमेटी को सौंपा गया था वह भी सुस्त दिख रही है। इस कमेटी का गठन पिछले साल सितंबर में हो गया था, लेकिन अभी तक उसकी केवल एक बैठक ही हो सकी है।

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद यदि यह कमेटी लोकपाल का हिस्सा बन सकने वाले नामों को पैनल तैयार भी कर लेती है तो फिर ये नाम चयन समिति के पास जाएंगे। यह चयन समिति जब तक अपना काम करेगी तब तक शायद देश में चुनाव हो रहे हों। क्या यह उचित होगा कि लोकपाल और उसके सहयोगियों के नाम तय करने का काम चुनाव के मुहाने पर खड़ी सरकार में शामिल लोग करें? इस सवाल का जवाब जो भी हो, यह किसी से छिपा नहीं कि लोकपाल संबंधी चयन समिति की बैठकें इसलिए भी बाधित हुईं, क्योंकि लोकसभा में सबसे बड़े दल के नेता के तौर पर कांग्रेस के सांसद मल्लिकार्जुन खड़गे उसका हिस्सा बनने के लिए तैयार नहीं हुए।

समस्या केवल यह नहीं है कि लोकपाल के गठन का काम प्राथमिकता में नहीं दिख रहा है, बल्कि यह भी है कि राज्य सरकारें लोकपाल की तर्ज पर लोकायुक्त के गठन में भी दिलचस्पी नहीं दिखा रही हैैं। एक समस्या यह भी है कि कुछ लोग अपने मन मुताबिक लोकपाल व्यवस्था का निर्माण होते देखना चाहते हैैं। यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे लोगों को झिड़का। पता नहीं लोकपाल का गठन कब होगा, लेकिन यह ठीक नहीं कि राज्य सरकारें लोकायुक्त को लेकर ढिलाई बरतें। वे इससे अनजान नहीं हो सकतीं कि आम आदमी रोजमर्रा के भ्रष्टाचार से अभी भी त्रस्त है।

माना कि केंद्र सरकार उच्च स्तर के भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में एक बड़ी हद तक कामयाब रही है, लेकिन राज्यों के स्तर पर नौकरशाही के भ्रष्टाचार में कोई उल्लेखनीय लगाम लगती नहीं दिखी है। ध्यान रहे कि आम आदमी को सबसे ज्यादा परेशानी राज्यों की नौकरशाही के भ्रष्ट तौर-तरीकों से ही उठानी पड़ती है।