पराली यानी फसलों के अवशेष जलाने के सिलसिले को खत्म न होते देख सुप्रीम कोर्ट ने अपने पूर्व न्यायाधीश मदन बी लोकुर की अध्यक्षता में एक समिति का गठन कर सख्त रवैये का संदेश दिया है। यह समिति पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश में पराली जलाने की घटनाओं पर निगाह रखेगी। इस समिति को राष्ट्रीय कैडेट कोर, भारत स्काउट्स एवं गाइड्स और राष्ट्रीय सेवा योजना के सदस्यों को उन क्षेत्रों में तैनात करने का अधिकार होगा, जहां पराली जलाई जाती है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार इस समिति को पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव तो सहयोग करेंगे ही, दिल्ली के वे अधिकारी भी रिपोर्ट करेंगे जिन पर प्रदूषण की रोकथाम की जिम्मेदारी है। यह समिति पराली को जलाए जाने से रोकने में तभी समर्थ हो सकती है, जब वह तत्काल प्रभाव से काम करना शुरू करे। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश आदि में अच्छी-खासी पराली जल चुकी है और उसके चलते दिल्ली एवं आसपास वायु प्रदूषण का असर दिखना शुरू हो गया है।

यह निराशाजनक है कि केंद्र सरकार की तमाम सक्रियता के बाद भी बीते लगभग एक दशक से सर्दियां आते ही दिल्ली और आसपास का इलाका वायु प्रदूषण की चपेट में आ जाता है। ऐसा लगता है कि राज्य सरकारें केंद्र के निर्देशों को एक कान से सुनती हैं और दूसरे से निकाल देती हैं। कई बार तो केंद्र और राज्यों में आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला भी कायम हो जाता है। यह इस बार भी कायम होता दिखा। शायद इसी कारण सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की उन दलीलों को महत्व नहीं दिया, जिनके जरिये यह कहा जा रहा था कि मदन बी लोकुर की अध्यक्षता में समिति गठित करने की जरूरत नहीं है। 

सच जो भी हो, यह किसी से छिपा नहीं कि पूर्व नौकरशाह भूरे लाल की अध्यक्षता में पहले से ही पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण एवं रोकथाम समिति बनी हुई है। इसके अलावा केंद्र सरकार का प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड भी है और राज्यों के भी ऐसे ही बोर्ड। आखिर ये सब क्या कर रहे हैं? सवाल यह भी है कि किसान पराली जलने से होने वाले नुकसान से परिचित होने के बाद भी उससे बचने के लिए तैयार क्यों नहीं हैं? इन सवालों का जवाब खोजने की जरूरत है। इसी के साथ सर्दियों में दिल्ली और आसपास के क्षेत्र को त्रस्त करने वाले वायु प्रदूषण की रोकथाम तक ही सीमित नहीं रहा जाना चाहिए। जब यह एक तथ्य है कि सर्दियों में उत्तर भारत का एक बड़ा इलाका वायु प्रदूषण की चपेट में आ जाता है, तब यह ठीक नहीं कि केवल एक सीमित क्षेत्र के पर्यावरण की चिंता की जाए।