सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र के भीमा-कोरेगांव में हिंसा भड़काने और नक्सलियों से मिलीभगत के आरोप में पुणे पुलिस की ओर से गिरफ्तार पांच लोगों को घरों में नजरबंद रखने के निर्देश देकर एक हद तक उनके प्रति नरमी का ही परिचय दिया है, लेकिन इसे उनकी जीत भी नहीं कहा जा सकता। चूंकि यह अंतरिम आदेश है इसलिए अगली सुनवाई पर ही पता चलेगा कि इन पांचों को गिरफ्तार करने वाली पुलिस के दावे में दम है या फिर इनके बचाव में दी जा रही इस तरह की दलीलों में कि असहमति को दबाया जा रहा है। नि:संदेह तभी यह भी पता चलेगा कि सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी भी अंतरिम है या नहीं कि असहमति लोकतंत्र के लिए प्रेशर कुकर के सेफ्टी वॉल्व की तरह है।

सुप्रीम कोर्ट अगली सुनवाई में चाहे जिस नतीजे पर पहुंचे, इसमें कोई दोराय नहीं कि देश के ग्रामीण इलाकों में नासूर बने नक्सलवाद को उसी तरह के शहरी लोगों से खुराक मिल रही है जैसे लोगों को पुणे पुलिस ने गिरफ्तार किया। उसने इसके पहले भी पांच लोगों को गिरफ्तार किया था। तब उसकी ओर से यह भी कहा गया था कि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश रच रहे थे। पांच और लोगों की गिरफ्तारी के बाद भले ही इस तरह के आरोप उछाले जाएं कि देश में आपातकाल लग गया है और असहमति की आवाज के लिए कोई जगह नहीं रह गई है, लेकिन यह एक तथ्य है कि शहरों में पढ़े-लिखे लोगों का एक समूह है जो नक्सलियों से सहानुभूति रखने के नाम पर उनकी मदद करता है। इस तथ्य से राजनीतिक दल और खासकर कांग्रेस भी भली तरह परिचित है।

यह बात और है कि आज वह पुणे पुलिस के साथ केंद्र सरकार को भी कोसने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती।

राजनीतिक ढिठाई का इससे सटीक उदाहरण और कोई नहीं हो सकता कि वे कांग्रेसी नेता भी पुणे पुलिस की ओर से गिरफ्तार लोगों के लिए आंसू बहा रहे हैैं जिन्होंने सत्ता में रहते समय इनमें से कुछ की गिरफ्तारी को उचित ठहराया था। कांग्रेस यह भूलने का भी बहाना कर रही है कि जिस कानून के तहत नक्सलियों से मिलीभगत के आरोप में पांच लोगों को गिरफ्तार किया गया उसे कठोर करने का काम उसके सत्ता में रहते समय ही हुआ था।

हैरत नहीं कि अब वह अॉपरेशन ग्रीन हंट से भी अनभिज्ञता जताए और मनमोहन सिंह के इस बयान से भी कि नक्सलवाद आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है। पुणे पुलिस की कार्रवाई पर राजनीतिक और वैचारिक सुविधा के तहत आसमान सिर पर उठाए लोग इस सच से मुंह मोड़ने का ही काम कर रहे हैैं कि नक्सलियों के प्रति हमदर्दी रखने के साथ ही उनकी हर संभव तरीके से मदद करने वाले तत्व शहरी समाज में सक्रिय हैैं। इसका प्रमाण तब मिला था जब दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जीएन साईंबाबा को नक्सलियों की मदद के अपराध में सजा सुनाई गई थी। नि:संदेह ऐसे तत्वों के खिलाफ आरोप साबित करना कठिन है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि शहरी समाज में नक्सलियों के दबे-छिपे मददगार नहीं हैैं।