दिल्ली मेट्रो के चौथे चरण की परियोजना से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर विचार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने देश की राजधानी में महिलाओं को मेट्रो यात्रा की मुफ्त सुविधा देने की केजरीवाल सरकार की प्रस्तावित योजना पर जो सवाल खड़े किए वे जरूरी थे। उम्मीद की जाती है कि दिल्ली सरकार सुप्रीम कोर्ट के इन सवालों पर न केवल गौर करेगी, बल्कि चुनावी लाभ को ध्यान में रखकर तैयार की गई अपनी प्रस्तावित योजना को ठंडे बस्ते में भी डालेगी। इसका कोई मतलब नहीं कि अपेक्षाकृत समर्थ और संपन्न मानी जाने वाली देश की राजधानी की सभी महिलाओं को गरीब मानकर उन्हें मेट्रो और सरकारी बसों में मुफ्त यात्रा की सुविधा प्रदान की जाए।

यह सुविधा उपलब्ध कराने के पीछे दी जा रही यह दलील खोखली ही अधिक है कि इससे कारों एवं दोपहिया वाहनों के इस्तेमाल में कमी आएगी और उसके चलते प्रदूषण से निपटने में मदद मिलेगी। शायद यही कारण रहा कि सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं को मेट्रो की मुफ्त यात्रा की प्रस्तावित योजना पर बिना किसी लाग लपेट यह कहा कि सरकार इस तरह जनता के धन की बर्बादी नहीं कर सकती। उसकी समझ से ऐसी कोई योजना दिल्ली मेट्रो को बर्बाद करने वाली साबित हो सकती है।

यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने मुफ्तखोरी की राजनीति की ओर बढ़ रही दिल्ली सरकार को समय रहते आगाह करने का काम किया, लेकिन उसे यह ध्यान रखना चाहिए कि राजनीतिक लाभ हासिल करने के लिए सार्वजनिक कोष के धन की अनदेखी करने का यह इकलौता मामला नहीं है। निर्धनता निवारण या लोक कल्याण के नाम पर रह-रह कर ऐसी योजनाएं सामने आती ही रहती हैैं जिनका असली मकसद गरीबों को आत्मनिर्भर बनाना कम और चुनावी लाभ हासिल करना अधिक होता है। इस मामले में सभी दल एक जैसे नजर आते हैैं। बीते कुछ समय से यह कुछ ज्यादा ही देखने को मिल रहा है कि चुनाव आते ही विभिन्न दल रेवड़ियां बांटने की होड़ में शामिल हो जाते हैैं। उनकी ओर से मुफ्तखोरी की संस्कृति को बढ़ावा देने वाली योजनाओं की घोषणा का सिलसिला कायम हो जाता है।

कुछ दल तो लोक-लुभावन वादों को अपने घोषणा पत्रों का हिस्सा भी बना देते हैैं। यदि कभी ऐसे दल सत्ता में आ जाते हैैं तो इस आधार पर अपने लोक-लुभावन वादों पर आनन-फानन में अमल शुरू कर देते हैैं कि वे इसी वादे के साथ सत्ता में आए हैैं। आम तौर पर ऐसा करते हुए वे आर्थिक नियमों की जानबूझकर उपेक्षा करते हैैं। चूंकि राजनीतिक दल लोक-लुभावन राजनीति करते समय आर्थिक नियम-कानूनों की परवाह नहीं कर रहे इसलिए सुप्रीम कोर्ट को कहीं अधिक सजग रहने की जरूरत है।