कर विभाग की ओर से अधिकरणों और अदालतों में अपील दायर करने की मौद्रिक सीमा बढ़ाने का फैसला तमाम करदाताओं को राहत देने और साथ ही उनके कारोबार को सुगम बनाने वाला है। अभी तक कर विभाग ऐसे सभी मामलों को चुनौती देता था जिनमें टैक्स की देनदारी दस लाख रुपये से अधिक होती थी। अब वह 20 लाख रुपये से अधिक राशि वाले मामलों को ही चुनौती देगा। इसी तरह वह उच्च न्यायालयों में उन्हीं मामलों को ले जाएगा जिनमें टैक्स राशि 50 लाख रुपये से अधिक होगी।

सर्वोच्च न्यायालय ले जाए जाने वाले मामलों की राशि एक करोड़ रुपये होगी। नि:संदेह टैक्स देनदारी के मामलों को अदालत ले जाने की मौद्रिक सीमा बढ़ाने से राजस्व की कुछ हानि होगी, लेकिन यह इतनी अधिक नहीं कि केंद्र सरकार के इस फैसले को घाटे का सौदा कहा जा सके। लाभान्वित होने वाले लोगों की संख्या को देखते हुए इस फैसले को वक्त की मांग ही कहा जाएगा। यदि कुछ सौ करोड़ रुपये के टैक्स देनदारी के मामलों को छोड़ देने से एक बड़ी संख्या में विवाद खत्म हो जाते हैैं तो यह संबंधित लोगों के साथ सरकार के लिए भी एक बड़ी राहत है। इसका कोई औचित्य नहीं कि सरकार छोटे और मझोले स्तर के करदाताओं से कानूनी लड़ाई लड़ने में उनके साथ-साथ अपना भी वक्त जाया करे। इस सिलसिले में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कुछ मामलों में तो टैक्स वसूली से अधिक राशि मुकदमा लड़ने में खर्च हो जाती है।

नि:संदेह सरकार टैक्स देनदारी के बड़े मामलों में वैसा कोई फैसला नहीं कर सकती जैसा उसने कम देनदारी के मामलों में किया। एक आंकड़े के अनुसार कर अधिकरणों से लेकर अदालतों में टैक्स संबंधी विवादों में सात लाख करोड़ रुपये से अधिक की राशि फंसी है। पिछले आर्थिक सर्वे में इन विवादों और उनमें फंसी राशि का जिक्र करते हुए इस पर जोर दिया गया था कि न्यायिक तंत्र को सुधारने की जरूरत है। यह जरूरत अभी भी बनी हुई है।

बेहतर हो कि सरकार इस जरूरत को पूरा करने की दिशा में भी तेजी से आगे बढ़े। यह काम इसलिए प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए, क्योंकि टैक्स विवादों में कर विभाग की सफलता का दर 30 प्रतिशत से अधिक नहीं। इसका सीधा मतलब है कि टैक्स संबंधी मामलों का निपटारा धीमी गति से हो रहा है। यह धीमी गति कारोबारी माहौल को और बेहतर करने के लक्ष्य में एक बाधा ही है। जैसे कम राशि वाले टैक्स देनदारी के मामले खत्म करने का फैसला किया गया वैसे ही मामूली आपराधिक मामलों को भी खत्म करने पर विचार किया जाना चाहिए।

अगंभीर किस्म के बहुत सारे आपराधिक मामले ऐसे हैैं जिनका निपटारा जुर्माना लगाकर किया जा सकता है। तमाम मामले ऐसे भी हैैं जिनमें सुलह-समझौता हो सकता है। बेहतर हो कि सरकार के साथ न्यायपालिका यह समझे कि न्यायिक प्रक्रिया में सुधार करने में हो रही देरी से समस्याएं बढ़ रही हैैं और वे तरक्की की रफ्तार को कम कर रही हैैं। यह ठीक नहीं कि हर क्षेत्र में सुधार तो हो रहे हैैं, लेकिन न्यायिक क्षेत्र में केवल सुधार की चर्चा भर होती है।