यह निराशाजनक है कि सुप्रीम कोर्ट को इस पर चिंता जतानी पड़ी कि गंभीर आरोपों का सामना कर रहे सांसदों और विधायकों के मामलों की जांच में देरी हो रही है। ये वे मामले हैं जो सीबीआइ अथवा प्रवर्तन निदेशालय ने दर्ज किए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को जिस तरह यह निर्देश दिया कि वह सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय को आवश्यक संख्या बल उपलब्ध कराए उससे यही स्पष्ट होता है कि ये एजेंसियां संसाधनों के अभाव का सामना कर रही हैं। यह स्थिति तत्काल प्रभाव से दूर होनी चाहिए। जब ऐसा होगा तभी ऐसे किसी नतीजे पर पहुंचा जा सकता है कि केंद्रीय सत्ता राजनीति के अपराधीकरण के सिलसिले को थामने को लेकर गंभीर है। यह ठीक है कि वह अपनी इस गंभीरता का प्रदर्शन पहले दिन से कर रही है, लेकिन अभी तक नतीजा ढाक के तीन पात वाला है। प्रत्येक चुनाव के बाद यही देखने-सुनने को मिलता है कि गंभीर आरोपों का सामना करने वाले जनप्रतिनिधियों की संख्या में कोई उल्लेखनीय गिरावट नहीं आई। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह स्थिति ठीक नहीं। दुर्भाग्यवश एक लंबे अर्से से यही स्थिति है और इसका कारण यह है कि निर्वाचित प्रतिनिधि अपने खिलाफ चल रहे मामलों की सुनवाई में अड़ंगा डालने में समर्थ हो जाते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सरकार से जो अपेक्षा व्यक्त की वह उचित ही है, लेकिन खुद उसे यह देखना होगा कि जनप्रतिनिधियों के खिलाफ चल रहे मामलों का समय पर निस्तारण न हो पाने के पीछे एक बड़ी वजह सुस्त न्याय प्रक्रिया है। उचित यह होगा कि स्वयं सुप्रीम कोर्ट यह देखे कि अदालतें समय रहते मामलों का निस्तारण करने में कैसे समर्थ रहें। यह ठीक नहीं कि जिन मामलों का निस्तारण कहीं अधिक तेजी से होना चाहिए उनमें भी देरी होती दिखती है। इससे उन तत्वों को बल ही मिलता है जो गंभीर आरोपों का सामना करने के बावजूद राजनीति में सक्रिय होना चाहते हैं। इससे केवल भारतीय लोकतंत्र ही कलंकित नहीं होता, बल्कि शासन-प्रशासन पर भी बुरा असर पड़ता है। यह समझना कठिन है कि गंभीर आरोपों का सामना कर रहे जनप्रतिनिधियों के मामलों की सुनवाई विशेष अदालतों की ओर से किए जाने के बावजूद स्थितियों में कोई उल्लेखनीय बदलाव आता क्यों नहीं दिख रहा है। इससे इन्कार नहीं कि नेताओं के खिलाफ राजनीतिक दुर्भावनावश अथवा बदले की कार्रवाई के तहत भी मामले दर्ज होते हैं, लेकिन सभी मामले ऐसे नहीं होते। यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि दुर्भावनावश दर्ज कराए जाने वाले मामलों की वापसी में कोई हर्ज नहीं है और यह काम उच्च न्यायालयों की सहमति से किया जाना चाहिए, लेकिन यह प्रक्रिया भी गति पकड़नी चाहिए।