पशुओं की खरीद-फरोख्त को लेकर केंद्र सरकार की अधिसूचना पर केरल उच्च न्यायालय ने जिस तरह यह कहते हुए हस्तक्षेप करने से इन्कार किया कि कोई ऐसा नियम नहीं बना है कि मवेशियों के वध या फिर उनके मांस सेवन पर पाबंदी लगाई जा रही है उससे यही स्पष्ट हुआ कि इस मसले पर किस तरह लोगों को बरगलाने के साथ राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं। इस पर भी गौर किया जाना चाहिए कि केरल उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में यह तो कहा ही कि नए नियमों से कोई संवैधानिक उल्लंघन नहीं हुआ है, इस पर हैरानी भी जताई कि मद्रास उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार की ओर से जारी अधिसूचना पर रोक लगा दी है। ध्यान रहे कि मद्रास उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार की अधिसूचना पर रोक लगाने के साथ ही यह भी कहा था कि कोई किसी के खाने की आदत को तय नहीं कर सकता। स्पष्ट है कि केरल उच्च न्यायालय के फैसले के बाद यह सवाल उठेगा ही कि क्या उसके पड़ोसी उच्च न्यायालय ने पशुओं को बेचने-खरीदने संबंधी अधिसूचना को सही तरह से जांचा-परखा ही नहीं? नि:संदेह एक सवाल यह भी उठेगा कि क्या न्यायाधीश संविधान की रोशनी में फैसला सुनाने के बजाय अपनी सोच के हिसाब से निर्णय दे देते हैं? ऐसे किसी सवाल की गुंजाइश इसलिए भी बन गई है, क्योंकि गत दिवस ही राजस्थान उच्च न्यायालय ने यह सुझाव दिया कि गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित किया जाना चाहिए। चूंकि राजस्थान उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सुझाव देने तक ही सीमित रहे इसलिए उसका एक सीमित महत्व ही है, लेकिन एक ही मसले पर मद्रास और केरल उच्च न्यायालय के विरोधाभासी फैसलों के बाद यह तय है कि मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचेगा।
उचित यह होगा कि सुप्रीम कोर्ट इस मसले का निपटारा प्राथमिकता के आधार पर करे ताकि केंद्र सरकार की अधिसूचना के बहाने जो अनावश्यक राजनीति हो रही है उस पर विराम लगे और साथ ही आम जनता और खासकर मीट एवं चमड़ा कारोबार में लगे लोग किसी दुविधा या संशय में न रहें। सुप्रीम कोर्ट के दखल की जरूरत इसलिए भी है, क्योंकि पशुओं की खरीद-बिक्री के नए नियम उसके ही आदेश के अनुपालन का हिस्सा हैं। बेहतर हो कि सुप्रीम कोर्ट इसकी गहन समीक्षा करे कि पशुओं को क्रूरता से बचाने के लिए उनको बेचने-खरीदने के जो नए नियम केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने एक अधिसूचना के जरिये जारी किए उनमें कहीं कोई विसंगति तो नहीं? इस समीक्षा के दौरान राज्यों के अधिकारों के कथित उल्लंघन के मसले के साथ ही मीट एवं चमड़ा व्यवसाय की संभावित परेशानियों का तो संज्ञान लिया ही जाना चाहिए, यह भी देखा जाना चाहिए कि पशुओं की देसी नस्लों का संरक्षण-संवद्र्धन कैसे हो और उन्हें क्रूरता से कैसे बचाया जाए? सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह सवाल भी होगा कि आखिर पशु बाजार के नियमन की जरूरत है या नहीं और अगर है तो उसकी पूर्ति कैसे की जा सकती है? इन सवालों का परीक्षण करते समय गाय के प्रति धार्मिक-सांस्कृतिक मान्यताओं को भी ध्यान में रखना होगा, क्योंकि कुछ लोग गोमांस खाने की जिद पकड़े हुए हैं। इस हठधर्मिता का उपचार समय की मांग है।

[  मुख्य संपादकीय  ]