सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों के पुलिस महानिदेशकों यानी डीजीपी की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव की मांग वाली याचिकाओं को खारिज करके सही ही किया। डीजीपी की नियुक्ति में स्थानीय कानूनों को महत्व देने की मांग का औचित्य इसलिए नहीं बनता, क्योंकि ऐसे कानून सत्तारुढ़ राजनीतिक दलों को मनमानी करने का ही मौका अधिक देते हैैं। इस महत्वपूर्ण पद पर नियुक्ति तो वरिष्ठता और काबिलियत के आधार पर ही होनी चाहिए। बेहतर हो कि डीजीपी की नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव की मांग वाली याचिकाएं दाखिल करने वाले हरियाणा, पंजाब, बिहार, पश्चिम बंगाल और केरल की सरकारें यह समझें कि सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस महानिदेशकों की नियुक्ति प्रक्रिया के नियम इस उद्देश्य से तय किए थे ताकि पुलिस के काम में राजनीतिक दखलंदाजी रोकी जा सके। इन नियमों के तहत सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि संघ लोक सेवा आयोग वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों का एक पैनल तैयार करेगा और राज्य सरकारें इस पैनल में से ही किसी को डीजीपी बना सकती हैैं।

समझना कठिन है कि राज्य सरकारों को ऐसा करने में क्या समस्या है? उनकी समस्या जो भी हो, केवल इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि सुप्रीम कोर्ट डीजीपी की नियुक्ति संबंधी अपने आदेश के पालन को लेकर प्रतिबद्ध दिख रहा है, क्योंकि पुलिस सुधार संबंधी उसके अन्य दिशा निर्देशों पर अभी भी पालन होता नहीं दिख रहा है। डीजीपी की नियुक्ति प्रक्रिया तो उसके सात सूत्रीय दिशा निर्देशों में से एक का ही हिस्सा है। आखिर इसकी सुध कब ली जाएगी कि शेष दिशा निर्देशों पर भी अमल हो? नि:संदेह यह सवाल सुप्रीम कोर्ट के साथ-साथ केंद्र सरकार से भी है, क्योंकि अभी तक आदर्श पुलिस अधिनियम भी अस्तित्व में नहीं आ सका है। ध्यान रहे कि इस अधिनियम का मसौदा भी 2006 में तैयार हुआ था और सुप्रीम कोर्ट के सात्र सूत्रीय दिशा निर्देश भी इसी साल सामने आए थे।

यह ठीक नहीं कि जैसे राज्य सरकारें पुलिस सुधारों को लेकर अनिच्छा प्रकट कर रही हैैं वैसे ही केंद्र सरकार भी। यदि यह समझा जा रहा है कि केवल डीजीपी की नियुक्ति में राजनीतिक दखलंदाजी रोकने से पुलिस की कार्यप्रणाली और उसकी छवि में सुधार आ जाएगा तो यह सही नहीं। पुलिस की कार्यप्रणाली तो तब सुधरेगी जब थाना स्तर के पुलिस अधिकारियों के काम में भी अनुचित राजनीतिक दखलंदाजी को रोकने के साथ ही यह सुनिश्चित किया जाएगा कि पुलिस नियम-कायदे से काम करे। बगैर यह सुनिश्चित किए बात बनने वाली नहीं है, भले ही डीजीपी की नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट की ओर से तय प्रक्रिया के हिसाब से होने लगे।

यह एक विडंबना ही है कि पुलिस सुधार संबंधी सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश 12 साल बाद भी अमल से दूर हैैं। यह स्थिति तो यही बताती है कि सुप्रीम कोर्ट भी अपने आदेश पर अमल कराने में सक्षम नहीं। स्पष्ट है कि एक ओर जहां सुप्रीम कोर्ट को यह देखना चाहिए कि पुलिस सुधारों संबंधी उसके आदेश पर सही तरह अमल हो वहीं केंद्र और राज्य सरकारों को भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पुलिस की कार्यप्रणाली बदले। वे इसकी अनदेखी नहीं कर सकतीं कि आम आदमी पुलिस की कार्य प्रणाली से संतुष्ट नहीं।