भीड़ की हिंसा के मामलों पर न तो केवल चिंता जताने से बात बनने वाली है और न ही सोशल मीडिया पर दोष मढ़ने से। केंद्र सरकार के लिए यह आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य है कि वह भीड़ की हिंसक गतिविधियों पर लगाम लगाने में अपनी प्रभावी सक्रियता का परिचय दे। नि:संदेह कानून एवं व्यवस्था राज्यों का विषय होने के नाते यह देखना मूलत: राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है कि भीड़ की हिंसा के मामले थमें, लेकिन किसी जरिये केंद्र सरकार को भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि राज्यों का पुलिस प्रशासन इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए सजगता का परिचय दे। यह इसलिए और आवश्यक हो जाता है, क्योंकि वर्तमान में करीब 20 राज्यों में भाजपा या उसके सहयोगी दल की सरकारें हैैं।

अच्छा यह होगा कि केंद्र सरकार इसके लिए समुचित कदम उठाए कि भाजपा और उसके सहयोगी दलों की ओर से शासित राज्य उन दिशानिर्देशों पर अमल अवश्य करें जो सुप्रीम कोर्ट की ओर से हाल ही में दिए गए हैैं। इन दिशानिर्देशों की वैसी अनदेखी नहीं होनी चाहिए जैसी पुलिस सुधारों संबंधी दिशानिर्देशों की हुई थी। यदि पुलिस सुधारों संबंधी दिशानिर्देशों पर समय रहते अमल हो जाता तो आज शायद भीड़ की हिंसा के मामले राष्ट्रीय चिंता का विषय नहीं बने होते। यह ठीक नहीं कि केंद्र सरकार के पास भीड़ के हाथों मारे गए लोगों का कोई आंकड़ा ही नहीं है। कम से कम अब तो यह व्यवस्था की जानी चाहिए कि राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो भीड़ र्की ंहसा के मामलों का विवरण रखे। ऐसा कोई विवरण समस्या के कारणों की पहचान करने में सहायक बनेगा। 

भीड़ की हिंसा एक ऐसा अपराध है जो अलग-अलग कारणों से अंजाम दिया जाता है। कभी भीड़ अनायास उग्र होकर हिंसा पर आमादा हो जाती है तो कभी उसे सुनियोजित तरीके से भड़काया जाता है। इसी तरह कभी मामूली वाद-विवाद भीड़ को हिंसक बना देता है तो कभी किसी बड़ी घटना के बाद लोगों का उग्र समूह अराजकता के रास्ते पर चल निकलता है। अक्सर ऐसी अराजकता में राजनीतिक दलों के लोग भी शामिल होते हैैं। इधर किस्म-किस्म के स्वयंभू संगठन भी बेलगाम हो रहे हैैं। यह किसी से छिपा नहीं कि अक्सर ऐसे संगठनों को किसी न किसी राजनीतिक दल का खुला-छिपा समर्थन हासिल होता है। कई बार अफवाह के चलते भी भीड़ की हिंसक और बर्बर रूप देखने को मिलता है।

भारत में भीड़ की हिंसा एक पुरानी समस्या है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उससे निपटने के नए उपाय न किए जाएं। भीड़ की हिंसा के खिलाफ सख्ती की जरूरत है और इस जरूरत की पूर्ति हर हाल में होनी चाहिए। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि केंद्र सरकार ने सोशल मीडिया सेवा प्रदाताओं को फर्जी खबरों और अफवाहों पर रोक लगाने का तंत्र बनाने को कहा है, क्योंकि उस मानसिकता को भी दूर करने की जरूरत है जिसके चलते लोग कानून हाथ में लेने को तैयार रहते हैैं। वे ऐसा इसलिए भी करते हैैं, क्योंकि उन्हें बच निकलने का यकीन होता है। ऐसे यकीन के लिए कानून एवं व्यवस्था का लचर तंत्र भी दोषी है।