इन दिनों घूसखोर अधिकारियों और कर्मचारियों की धरपकड़ तेज हुई है। यह अच्छी बात है कि सरकार भ्रष्टाचार पर जीरो टालरेंस की अपनी नीति पर कायम है। दूसरी ओर यह चिंता का विषय भी है कि लगातार कार्रवाई के बावजूद सरकारी मुलाजिमों में घूसखोरी की प्रवृत्ति में कोई फर्क नहीं दिख रहा। चौबीस घंटे के अंदर विभिन्न पदों पर कार्यरत चार सरकारी मुलाजिम रंगे हाथ घूस लेते दबोचे गए। इनमें दो तो पुलिस महकमे से हैं। जिन लोगों पर कानून की रक्षा की जिम्मेदारी है, वही कानून के शिकंजे में आ रहे हैं। गया में महिला थाने की थानाध्यक्ष को उसके कक्ष में ही निगरानी ने फरियादी से घूस लेते पकड़ा। समस्तीपुर के पटोरी थाने में पदस्थापित एएसआइ को निगरानी ने दबोचा। तीसरा मामला कटिहार से जुड़ा है, जहां बीईओ को साठ हजार रुपये घूस लेते पकड़ा गया। एक मामला बांका से जुड़ा है। वहां ठेकेदारों से ऊपरी कमाई करते निम्न वर्गीय लिपिक को जिलाधिकारी ने पकड़ा। लगातार घूसखोरों की गिरफ्तारी का एक पक्ष यह भी है कि आम जनता जागरूक हुई है। इसे आंदोलन का रूप देने की जरूरत है। भ्रष्टाचार पर तब तक करारा प्रहार नहीं किया जा सकता जब तक कि जनता सहभागी न बने। यह सहभागिता कई तरह से निभाई जा सकती है। किसी भी कार्यालय में पदस्थापित अधिकारी या कर्मी की पहचान बनते ज्यादा देर नहीं लगती। यदि भ्रष्ट आचरण के सरकारी मुलाजिमों को टारगेट कर रणनीति तय की जाए तो उन्हें कानून के शिकंजे में लाते देर नहीं लगेगी। यदि आम लोग सहूलियत और जल्दीबाजी से बचने का प्रयास करें तो भ्रष्टाचार पर हद तक अंकुश लग सकता है। राज्य सरकार ने अधिकारियों के लिए संपत्ति की घोषणा को अनिवार्य कर दिया है। ये घोषणाएं सार्वजनिक की जाती हैं। यदि लोग चाहें तो विवरण में छुपाई गई संपत्ति की जानकारी सक्षम विभाग को दे सकते हैं। ऐसे में संपत्ति का गलत विवरण देने वाले अधिकारी जांच के दायरे में आ सकते हैं। साधारण पदों पर बैठे अधिकारी और कर्मचारी देखते-देखते आलीशान भवनों और महंगे प्लॉट के स्वामी बन बैठते हैं। बड़ी संख्या में ऐसे लोग अवकाश प्राप्त भी कर लेते हैं, लेकिन एक शिकायत के अभाव में उनपर कार्रवाई नहीं होती। यदि आम लोग सचेत और सक्रिय हो जाएं तो भ्रष्टाचार पर अंकुश पाना कठिन नहीं।

[ स्थानीय संपादकीय: बिहार ]