नई दिल्ली, जेएनएन। दिपावली के बहाने आज हम जिस समृद्धि की कामना करते हैं, वह उसका विकृत रूप है। जिस रूप में आज दीपावली मनाई जाती है वो कहीं से भी प्रकृति और परंपरा के अनुरूप नहीं कही जा सकती है। किसी भी त्यौहार को प्रकृति के साथ जुड़ने का भी अवसर माना जाता है। हमारे पौराणिक ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है जहां दीपावली का मतलब प्रभु और प्रकृति को एक साथ जोड़कर खुशियों को बांटने का है। आज ठीक उसके विपरीत हम जो कुछ भी करते हैं वो वैभव, अहंकार व दिखावे से ज्यादा जुड़ा है। संस्कार इन पर्वो से दूर होते जा रहे हैं। 

एक तरफ पटाखों की झड़ी लगाकर हम जहां वायु प्रदूषण को और गंभीर बना देते हैं और जिससे कई तरह की शारीरिक व्याधियां जुड़ी होती हैं वहीं दूसरी तरफ हम दीप की जगह जो तमाम तरह के रोशनी के दूसरे तौर तरीके अपनाते हैं वह किसी भी तरह प्रकृति के अनुकूल नहीं कहे जा सकते। अब देखिए जब दीप बनता है तो उसमें एक गरीब व्यक्ति की रोजी-रोटी जुड़ी होती है जबकि आज उसके बदले हमने चीन से आयातित लड़ियों का जिस स्तर पर उपयोग करना शुरू कर दिया है उससे हमने उस गरीब के पेट पर सीधे लात मार दी और उसकी दिवाली को अंधेरों में धकेल दिया। पटाखेबाजी को लेकर हम जो कुछ भी आज करते हैं वह दो तरह से बड़ा घातक है। एक जो पटाखे दक्षिण भारत में बनते हैं वो बच्चों के द्वारा बनाये जाते हैं। बाल मजदूरी के रूप में बच्चों का शोषण किया जाता है। हमें नहीं भूलना चाहिये कि दीवाली की समृद्धि उनसे भी जुड़ी हुई है जिसे हम उनसे छीन लेते हैं।

जिस तरह की दिवाली हम मनाते हैं वह हमारी संस्कृति का द्योतक हो ही नहीं सकता। जब ढेर सारा धुआं व सड़कों पर पड़ा हुआ पटाखों का कबाड़ अगर दीवाली के बाद शहर सड़क और संस्कृति को प्रदूषित करता हो तो उसे संपन्नता का प्रतीक कैसे कह सकेंगे। पटाखों का शोर एक नये प्रदूषण के रूप में घातक हो जाता है खासतौर से बच्चों और वृद्धों के लिये।

दिवाली पर्व के और भी कई मायने हैं जो आज दिखाई नहीं देते। ये मात्र रौशनी ही नहीं बल्कि ये एक प्रबोधन का भी पर्व है जिससे हम सर्वहित की भी बात करते हैं। दीपावली हमेशा अमावस्या में ही आती है और असंख्य दीप इस काली रात को रौशनी में बदल देते हैं। मतलब यह पर्व यह भी बताने की कोशिश करता है कि कितने भी दुर्गम रास्ते हों, हम एक दीप जलाकर नई रोशनी को जन्म दे सकते हैं।

दुर्भाग्य यह है कि हमने इसके पौराणिक महत्व को एक सिरे से नकार दिया है। अपने तरीके से दिवाली मनाने के जो तरीके अपनाये वो गलत ही नहीं, सर्वाधिक घातक भी हैं। प्रकृति के साथ-साथ हम अपनी प्रवृत्ति को भी नुकसान पहुंचाते हैं। दीपावली का मतलब जोड़ने का है ना कि घटने घटाने का। आज घातक रसायनों से बने पटाखे हमारे शरीर के विभिन्न अंगों को संक्रमित करते हैं। हम गंभीर बीमारियों के जकड़न में फंस जाते हैं। इस तरह की दिवाली से रोशनी से ज्यादा हम अंधेरों की तरफ चले जाते हैं जहां शारीरिक, मानसिक और पारिस्थितिक विषाद हमें घेर लेते हैं।

 डॉ अनिल प्रकाश जोशी

संस्थापक, हिमालयन एनवायरमेंटल स्टडीज एवं कंजरवेशन ऑर्गनाइजेशन, देहरादून

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