कोयला खदानों के आवंटन के नाम पर किए गए घोटाले में झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को दोषी करार दिए जाने से इस बात की नए सिरे से पुष्टि हो जाती है कि देश को हैरान और मनमोहन सरकार को शर्मसार करने वाले इस घपले में नेताओं की भी भागीदारी थी। सीबीआइ की विशेष अदालत ने मधु कोड़ा के साथ तत्कालीन कोयला सचिव को भी दोषी पाया और उस समय की झारखंड सरकार के दो शीर्ष अफसरों को भी। इसका मतलब है कि यह घोटाला नेताओं और नौकरशाहों ने उद्यमियों से मिलकर किया था। जिस मामले में इन सबको सजा सुनाई गई उसमें एक ऐसी कंपनी को भी कोयला खदान आवंटित कर दी गई थी जिसकी संबंधित मंत्रालय ने अनुशंसा ही नहीं की थी। सच तो यह है कि ऐसी कई कंपनियां थीं जिन्होंने या तो अपने राजनीतिक संपर्कों के बल पर या फिर छल-छद्म से कोयला खदानें झटक ली थीं। इनमें से कुछ के पास तो उस तरह के काम का कोई अनुभव भी नहीं था जिससे कोयला खदान लेने का औचित्य सही साबित हो सकता। कोयला घोटाला संसाधनों की बंदरबांट का वैसा ही शर्मनाक खेल था जैसा 2जी स्पेक्ट्रम के आंवटन के नाम पर खेला गया था। इस घोटाले के जरिये भी कई ऐसी कंपनियों को नियमों की अनदेखी करके उपकृत किया गया था जिनका दूरसंचार क्षेत्र से कोई लेना-देना नहीं था। कोयला घोटाले के बारे में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि जिस समय कोयला खदानों की बंदरबांट हुई उस समय कोयला मंत्रालय का प्रभार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास ही था। आखिर वह इस घोटाले की नैतिक जिम्मेदारी लेने से कैसे इन्कार कर सकते हैैं? क्या इसे सहज-सामान्य कहा जा सकता है कि स्क्रीनिंग कमेटी ने उन्हें अंधेरे में रखा?
मधु कोड़ा और कुछ अन्य को दोषी करार दिए जाने के साथ ही कोयला घोटाले के कुल 30 मामलों में से चार का निस्तारण हो चुका है। इन चार मामलों के निपटारे में करीब तीन साल बीत चुके हैैं। स्पष्ट है कि सभी मामलों को निपटाने में और समय लग सकता है। यह भी ध्यान रहे कि अभी सीबीआइ की विशेष अदालत ही फैसले सुना रही है। इसके बाद मामले ऊंची अदालतों में जाएंगे ही। कहना कठिन है कि इन सब मामलों का अंतिम निस्तारण कब तक होगा? आखिर ऐसी कोई व्यवस्था बनाने में क्या हर्ज है जिससे भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों का निस्तारण और अधिक तेजी के साथ हो सके? भ्रष्टाचार के बड़े और गंभीर मामलों का जल्द निस्तारण तो खास तौर पर सुनिश्चित किया जाना चाहिए, क्योंकि ऐसा करके ही भ्रष्ट तत्वों और साथ ही समाज को सही संदेश दिया जा सकता है। अभी तो एक खराब स्थिति यह भी है कि भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में निचली अदालत या फिर सीबीआइ की विशेष अदालत से सजा पाए नेता कुछ समय बाद जमानत पर बाहर आकर परोक्ष तौर पर राजनीति में सक्रिय हो जा रहे हैैं। इस दौरान वे खुद को निर्दोष बताते हुए सहानुभूति अर्जित करने की कोशिश करते हैैं। विडंबना यह है कि कई बार उन्हें या फिर चुनाव मैदान में उतरे उनके परिजनों को सहानुभूति मिल भी जाती है।

[ मुख्य संपादकीय ]