जम्मू कश्मीर में पिछले साढ़े आठ साल से टलते आ रहे पंचायत और स्थानीय निकाय चुनाव को लेकर राज्यपाल एनएन वोहरा द्वारा कड़ा संज्ञान लिया जाना सही है। मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की चुनाव न कराए जाने को लेकर अपनी राजनीतिक मजबूरी हो सकती है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि राज्य में इन चुनावों को टाल दिया जाए। सत्ताधारी पीडीपी को लग रहा है कि कश्मीर में उनका जनाधार कम हुआ है, क्योंकि कश्मीर के लोग नहीं चाहते थे कि पीडीपी विधानसभा चुनावों के बाद भाजपा से मिलकर सरकार बनाए। घाटी के लोगों ने पीडीपी के नाम पर वोट दिया। महबूबा मुफ्ती को भी लग रहा है कि मौजूदा हालातों में निकाय या पंचायत चुनाव करना उचित नहीं होगा, क्योंकि घाटी में चुनावों को लेकर हालात माकूल नहीं है। मुख्यमंत्री ने गत वर्ष दिसंबर माह में यह घोषणा की थी कि राज्य में 15 फरवरी तक पंचायती चुनाव करवा लिए जाएंगे, लेकिन ऐसा संभव नही हो पाया। अब महबूबा मुफ्ती को मानना है कि फरवरी और मार्च महीने में देश भर से सैलानी कश्मीर घाटी आते हैं। अगर चुनावों के दौरान हालात खराब हो गए तो कश्मीर के लोग जिनकी रोजी रोटी पर्यटन उद्योग पर निर्भर है, उनकी मुश्किलें बढ़ जाएंगी। राज्य में पंचायत चुनाव वर्ष 2011 में चार दशक बाद हुए थे।

पंचायतों का कार्यकाल वर्ष 2016 में राज्य में समाप्त हो गया था, लेकिन तब से पंचायतें पंगू बनी हुई हैं। राज्य में 2005 में पीडीपी-कांग्रेस के कार्यकाल के दौरान निकाय चुनाव हुए और इनका कार्यकाल भी 2010 में समाप्त हो गया। आठ साल बाद भी निकायों को मजबूत नहीं किया जा सका। अमरनाथ यात्र भी जून में शुरू हो जाएगी। मौजूदा हालात में राज्य की अधिकतर पार्टियां पंचायत चुनाव नहीं चाहती हैं। पाकिस्तान समर्थक देशविरोधी तत्व इसे ग्रामीण इलाकों में भय, आतंक बरकरार रख राज्य में लोकतंत्र प्रणाली को बहाल होते देखना नहीं चाहते। विगत कुछ वर्ष में घाटी में पंद्रह पंचों, सरंपचों की हत्या हो चुकी है। ऐसे में सरकार के पास चुनावों से पीछे हटना ही एकमात्र रास्ता दिख रहा है। इसका यह मतलब नहीं कि आतंकियों के डर से इन चुनावों को टाल दिया जाए। सरकार को चाहिए कि सर्वप्रथम राज्य में हालात को सामान्य बनाए।

[ स्थानीय संपादकीय: जम्मू-कश्मीर ]