सोशल मीडिया केंद्र बनाने की मोदी सरकार की योजना को पहले जिस तरह जासूसी का जाल बिछाने की कवायद के रूप में देखा गया और फिर सुप्रीम कोर्ट ने उस पर जैसी सख्त आपत्ति जताई उसके बाद उसे ठंडे बस्ते में ही जाना था। समझना कठिन है कि अगर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय सोशल मीडिया हब का निर्माण सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों के प्रचार-प्रसार के लिए करना चाह रहा था तो फिर उसकी व्याख्या इस रूप में कैसे हुई कि सरकार का इरादा लोगों की ऑनलाइन गतिविधियों पर निगरानी करना है? इस सवाल का जवाब जो भी हो, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म सूचनाएं हासिल करने, अपनी बात प्रभावी ढंग से कहने, सवाल पूछने और विरोध जताने का अवसर उपलब्ध कराने के साथ कई तरह की समस्याएं भी पैदा कर रहे हैं।

सोशल मीडिया पर तमाम तत्व जिस तरह नफरत फैलाने, दुष्प्रचार करने, लोगों को उकसाने और यहां तक कि उन्माद एवं आतंक की पैरवी करने तक का काम कर रहे हैं वह भारत समेत दुनिया के अनेक देशों के शासन-प्रशासन के लिए एक बड़ा सिरदर्द है। सोशल मीडिया कंपनियां अपने प्लेटफार्म पर सक्रिय अराजक और उन्मादी तत्वों के खिलाफ कार्रवाई करने अथवा अवांछित या भड़काऊ सामग्री के प्रसार को रोकने में किस तरह आनाकानी करती हैं, इससे खुद सुप्रीम कोर्ट परिचित है। बहुत दिन नहीं हुए जब सुप्रीम कोर्ट ने यौन अपराध के वीडियो प्रतिबंधित करने में हीलाहवाली पर गूगल, फेसबुक समेत तमाम कंपनियों पर एक-एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया था।

सच तो यह है कि तब इन कंपनियों ने यह तक नहीं बताया था कि वे यौन अपराध के वीडियो का प्रसार रोकने के लिए क्या उपाय कर रही हैं? भीड़ की हिंसा पर सुनवाई कर चुका सुप्रीम कोर्ट इससे भी अनभिज्ञ नहीं हो सकता कि हाल के समय में ऐसी हिंसा के कुछ मामले इसलिए सामने आए, क्योंकि सोशल मीडिया के जरिये यह अफवाह फैलाई गई कि अमुक-अमुक जगह बच्चे चोरी करने वाले दिखे हैं।

बेहतर होता कि सुप्रीम कोर्ट केवल इतने भर से संतुष्ट नहीं होता कि केंद्र सरकार सोशल मीडिया हब बनाने की अपनी योजना से पीछे हट रही है। उसे ऐसे कुछ उपाय भी सुझाने चाहिए थे जिससे सोशल मीडिया के किस्म-किस्म के प्लेटफॉर्म पर सक्रिय अराजक तत्वों पर काबू पाने में मदद मिलती। जैसे इसमें दोराय नहीं कि सोशल मीडिया संवाद-संपर्क के साथ प्रचार-प्रसार का एक प्रभावशाली माध्यम है। वैसे ही यह भी एक तथ्य है कि इस माध्यम का अनुचित इस्तेमाल भी जमकर किया जा रहा है। कुछ अराजक समूह और यहां तक कि आतंकी संगठन तो अपने प्रसार के लिए सोशल मीडिया पर ही निर्भर हैं। नि:संदेह सरकारी तंत्र को आम लोगों की जासूसी करने वाले उपायों से लैस होने की अनुमति नहीं दी जा सकती, लेकिन यह समय की मांग है कि ऐसी कोई व्यवस्था बने जिसके जरिये सोशल मीडिया पर सक्रिय समाज, समरसता और देश विरोधी तत्वों से निपटा जा सके। इस मामले में इस तर्क के लिए गुंजाइश नहीं है कि समय के साथ लोग खुद ही समझदारी और संयम का परिचय देने लगेंगे।