इस पर हैरानी नहीं कि एक और रपट भारत में वायु प्रदूषण के खतरनाक स्तर को बयान कर रही है। अमेरिका के हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टीट्यूट की इस रपट के अनुसार 2017 में वायु प्रदूषण जनित बीमारियों के कारण दुनिया भर में करीब 50 लाख लोगों की मौत हुई और इनमें 12 लाख लोग भारत के थे। आम तौर पर इस तरह की रपटों को अतिरंजित ठहराने की कोशिश होती है, लेकिन जब एक के बाद एक अध्ययन यह बयान करें कि भारत में वायु प्रदूषण बेलगाम होकर जानलेवा हो गया है तब फिर इस नतीजे पर पहुंचने के अलावा और कोई उपाय नहीं कि स्थिति वाकई गंभीर है। अभी पिछले माह ही एक अध्ययन ने यह बताया था कि दुनिया के दस सबसे प्रदूषित शहरों में अकेले सात भारत के हैं। इसका मतलब है कि भारत वायु प्रदूषण का गढ़ बन गया है।

वायु प्रदूषण के खतरनाक होते स्तर से यही रेखांकित होता है कि सरकारें उसकी रोकथाम के प्रति पर्याप्त गंभीर नहीं। यह किसी से छिपा नहीं कि वायु प्रदूषण थामने के उपायों पर तब ध्यान दिया जाता है जब वह खतरनाक रूप धारण कर लेता है या फिर ग्रीन ट्रिब्यूनल अथवा अदालतें शासन-प्रशासन को फटकार लगाती हैं। यह सही है कि भारत तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाला विकासशील देश है और आर्थिक प्रगति के पहिये को रोका नहीं जा सकता, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हमारे नीति-नियंता जानलेवा होते वायु प्रदूषण से मुंह मोड़े रहें। उन्हें यह समझना होगा कि प्रदूषण जनित बीमारियों से होने वाली इतनी अधिक मौतें अंतत: अर्थव्यवस्था पर बुरा असर डालने वाली साबित होंगी। जब कहीं परिवारों के कमाऊ सदस्य असमय मौत के शिकार होते हैैं तो उससे केवल वे परिवार ही नहीं, समाज और देश भी कमजोर होता है। ऐसी मौतों का बुरा असर विकास दर पर भी पड़ता है। स्पष्ट है कि हम तेज विकास के फेर में जानलेवा होते वायु प्रदूषण की अनदेखी करने की स्थिति में बिल्कुल भी नहीं।

एक गंभीर समस्या के प्रति चेतने में हमने पहले ही देर कर दी है। और अधिक देरी ऐसे हालात पैदा कर सकती है कि उनसे निपटना मुश्किल हो जाए। यह ठीक नहीं कि हमारे नीति-नियंता वायु प्रदूषण के कारण और निवारण से अच्छी तरह परिचित होने के बाद भी वैसे कदम उठाने में तत्परता नहीं दिखाते जो आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य हो चुके हैं। वायु प्रदूषण की रोकथाम के वे उपाय किसी काम के नहीं जिन्हें अमल में न लाया जाए।

यह चिंताजनक है कि वायु प्रदूषण से निपटने के लिए दीर्घकालिक एवं समग्र नीतियों का अभाव अभी भी दिखता है। इस अभाव की गवाही देश के महानगरों के साथ-साथ अनेक छोटे शहर भी देने लगे हैैं। हालांकि हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टीट्यूट ने उज्ज्वला योजना का उल्लेख करते हुए कहा है कि इस तरह की योजनाएं उम्मीद जगाती हैं, लेकिन यह ध्यान रहे तो बेहतर कि वायु प्रदूषण पर लगाम लगाने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है। इस क्रम में सबसे पहले यह देखना जरूरी है कि हमारे शहर रहने लायक कैसे बनें? उनका बेतरतीब विकास का पर्याय बने रहना शहरीकरण की योजनाओं पर एक गंभीर सवाल है।