कांग्रेस के नेता सैम पित्रोदा ने एक बार फिर कांग्रेस को भी मुसीबत में डाला और खुद को भी। 1984 के सिख विरोधी दंगों को लेकर उन्होंने जिस तरह यह कहा कि जो हुआ सो हुआ उस पर तीखी प्रतिक्रिया होनी ही थी। पहले तो उन्होंने यह कहकर बच निकलने की कोशिश की कि विरोधियों ने उनके शब्दों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया, फिर उन्होंने अपने बयान के लिए यह कहते हुए खेद जता दिया कि उनकी हिंदी अच्छी नहीं। उनका कहना सही हो सकता है, लेकिन आखिर जिस भाषा में वह सहज नहीं उसका उन्होंने इस्तेमाल ही क्यों किया और वह भी इतने संवेदनशील मसले पर? उन्हें यह पता होना चाहिए कि आज के इस दौर में टीवी कैमरे के सामने दिए जाने वाले बयान स्वत: ही सब कुछ स्पष्ट कर देते हैं। आखिर इसकी अनदेखी कैसे की जा सकती है कि वह झल्लाहट में आकर यह कहते दिख रहे हैं कि 1984 में हुआ तो हुआ। मुश्किल यह है कि सैम पित्रोदा की तरह अन्य अनेक नेतागण भी सार्वजनिक तौर पर कुछ भी कह जाते हैं और फिर मीडिया अथवा विरोधियों पर यह आरोप मढ़ते हैं कि उनकी बात को सही तरह से पेश नहीं किया गया। 1984 के सिख विरोधी दंगे देश के लिए एक दाग की तरह हैं। एक नरसंहार सरीखे ये भीषण दंगे इसलिए एक जख्म जैसे हैं, क्योंकि उनके लिए जिम्मेदार कई अपराधी अभी भी सजा से दूर हैं। इस भयावह घटना पर तो हर दल और खासकर कांग्रेस के नेताओं को कहीं सतर्क होकर बोलना चाहिए। दुर्भाग्य से कांग्रेस ने इस मामले की संवेदनशीलता को समझने से पहले भी इन्कार किया है। यह एक तथ्य है कि दिल्ली में सिख विरोधी दंगे भड़काने के आरोपी नेताओं को चुनाव लड़ाया गया और मंत्री भी बनाया गया।

यह पहली बार नहीं जब सैम पित्रोदा ने अपने किसी कथन से कांग्रेस के लिए मुश्किल खड़ी की हो। बहुत दिन नहीं हुए जब उन्होंने पुलवामा हमले के जवाब में बालाकोट में हुई एयर स्ट्राइक पर यह कह दिया था कि कुछ लोगों की गलती के लिए पूरे पाकिस्तान को दोष देना सही नहीं। वह बालाकोट में आतंकियों के मारे जाने के प्रमाण भी चाह रहे थे। वह केवल इतने तक ही सीमित नहीं रहे। उन्होंने मुंबई हमले का जिक्र करते हुए कहा कि आठ लोग आए और उन्होंने कुछ किया तो इसके लिए आप पाकिस्तान को निशाने पर कैसे ले सकते हैं? उन्हें अपने इस बयान के लिए भी सफाई देनी पड़ी थी। क्या यह महज एक दुर्योग है कि सैम पित्रोदा ने सिख विरोधी दंगों को भी हल्के में लिया और मुंबई हमले को भी? यह सही है कि सैम पित्रोदा पारंपरिक नेताओं की तरह नहीं हैं, लेकिन राहुल गांधी के सलाहकार और इंडियन ओवरसीज कांग्रेस के प्रमुख होने के नाते उन्हें कहीं अधिक संभलकर बोलना चाहिए। वह अपने बयानों से अपनी छवि खराब करने के साथ ही अपने उस योगदान को भी किनारे करने का काम कर रहे हैं जो उन्होंने संचार क्षेत्र में दिया था। उन्हें यह समझ आए तो बेहतर कि कई बार बिना सोचे-समझे बोलना बेहद खतरनाक साबित होता है।

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