नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्थापना दिवस पर अपने वार्षिक संबोधन में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए जिस तरह कानून बनाने की जरूरत जताई उसकी व्याख्या इस रूप में होना स्वाभाविक है कि आम चुनाव निकट आते ही इस मसले को जानबूझकर उछाला जाने लगा। यह भी कहा जा सकता है कि संघ ने मोदी सरकार को सीधा संदेश देने की कोशिश की है। इस संदेश को एक तरह के दबाव के तौर पर भी देखा जा सकता है। जो भी हो, मौजूदा माहौल में यह उचित नहीं कि राम मंदिर के सवाल पर संघ जाने-अनजाने मोदी सरकार पर किसी तरह का दबाव बनाता दिखे। नि:संदेह कानून के जरिये अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण संभव है, लेकिन इस राह पर जाने की अपनी समस्याएं हैं। एक समस्या तो इस सवाल के रूप में उठ खड़ी होगी कि अब जब सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या मामले की सुनवाई शुरू होने ही वाली है तब फिर राम मंदिर निर्माण के लिए कोई कानून लाना कितना ठीक रहेगा?

इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अगर आम चुनाव के पहले राम मंदिर निर्माण के पक्ष में कोई कानून बन भी जाए तो उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। यह सही है कि अयोध्या विवाद जरूरत से ज्यादा लंबा खिंच रहा है और राजनीतिक अड़ंगेबाजी इस मसले के हल की एक बड़ी बाधा है, लेकिन इस सबके बावजूद मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम का मंदिर मर्यादाओं के तहत ही निर्मित होना चाहिए। पता नहीं सुप्रीम कोर्ट अयोध्या विवाद का निपटारा कब और किस रूप में करेगा, लेकिन इससे अच्छा और कुछ नहीं कि इस भावनात्मक मसले का हल आपसी बातचीत से हो। अगर अतीत में आपसी बातचीत की पहल किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी तो इसका यह मतलब नहीं कि आगे भी ऐसा ही होगा। बेहतर होगा कि एक और बार आपसी सहमति से अयोध्या विवाद का हल निकालने की कोशिश हो। यह कोशिश संघ की ओर से भी की जानी चाहिए।

संघ प्रमुख ने अपने वार्षिक संबोधन में विभिन्न मसलों पर अपनी राय प्रकट करते हुए दक्षिण भारत के विख्यात सबरीमाला मंदिर में सभी उम्र की महिलाओं के प्रवेश संबंधी सुप्रीम कोर्ट के फैसले से असहमति जताई। उनके हिसाब से सुप्रीम कोर्ट को सबरीमाला मंदिर की उस परंपरा का ध्यान रखना चाहिए था जिसके तहत रजस्वला महिलाओं को वहां जाने की मनाही है। इससे इन्कार नहीं कि यह एक पुरानी परंपरा है, लेकिन क्या यह भेदभाव करने वाली परंपरा नहीं?

आखिर ईश्वर के घर यानी मंदिर में महिला-पुरुष में भेद क्यों? यह एक तथ्य है कि अपने देश में धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परंपराओं के नाम पर कई ऐसे रीति-रिवाज कायम हैं जो मानवीय गरिमा के अनुकूल नहीं। ऐसे रीति-रिवाजों के पीछे एक बड़ा कारण देश का समान नागरिक संहिता की दिशा में आगे न बढ़ पाना है। उचित यह होता कि संघ प्रमुख सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश संबंधी सुप्रीम कोर्ट के फैसले से असहमत होने के बजाय समान नागरिक संहिता पर जोर देते, क्योंकि इस जरूरी संहिता का अभाव कई समस्याओं को जन्म दे रहा है।