उप राष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी ने सोमवार को राजधानी लखनऊ आकर सूचना कानून के अमल के प्रति जो चिंता जतायी और जो सुझाव दिए, वे यह सोचने पर विवश करते हैं कि क्यों इतने वर्षों बाद भी सूचना का वादी भटकने पर विवश है। क्या अक्टूबर 2005 को लागू कानून के अमल की अब व्यापक समीक्षा नहीं की जानी चाहिए। उप राष्ट्रपति की चिंता सामान्य बात नहीं और अब उत्तर प्रदेश सरकार चाहे तो इस कानून की ग्यारह वर्षों की यात्रा पर एक श्वेत पत्र निकाल सकती है। हामिद अंसारी का यह कहना और भी अर्थपूर्ण हो जाता है कि भारत का सूचना कानून विश्व के सर्वश्रेष्ठ कानूनों में गिना जाता है। फिर ऐसा क्या हो गया है जो लखनऊ के सूचना आयोग के गलियारों में वादी परेशान घूमते हैं और भीतर फाइलों का अंबार लगा होता है। उप राष्ट्रपति का कहना था कि अब भी इस कानून के प्रति जानकारी बहुत नहीं, इसलिए प्रचार प्रसार की आवश्यकता है। उन्होंने सूचना आवेदकों को सुरक्षा देने और सरकारी फाइलों के प्रति गोपनीयता बरतने की पुरानी मानसिकता से उबरने का भी सुझाव दिया। जाहिर है, सरकारी विभाग इन सुझावों पर अमल कर सकें तो आम आदमी का भला हो जाए।

ध्यान से देखें तो असल समस्या मानसिकता की है। यह दोतरफा है। पहली कठिनाई उसकी तरफ से आती है जिससे सूचना मांगी गई। ऐसे बीसों उदाहरण है जब आवेदक को फोटो कॉपी का खर्च हजारों रुपये में बता दिया गया। उससे कहा गया कि सूचना तो दे देंगे लेकिन, पांच हजार पेज हैं जिनकी तुम्हें फोटो कॉपी करानी होगी। क्या सूचना को संक्षिप्त नहीं किया जा सकता। आयोग में हाजिर होने जनसूचना अधिकारी को बुलाया जाता है लेकिन वह अपनी जगह किसी और को भेज देता है। आइएएस अफसर आयोग में हाजिरी को हेठी समझते हैं। सूचना आयुक्तों की नियुक्ति भी इस समस्या का वह पेंच है जिसे खोले बिना वादी का हित संभव नहीं। सूचना आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया बहुत पारदर्शी होनी चाहिए, किसी राजनीतिक दल की कृपा आधारित नहीं। तभी आयोग जनता के प्रति अधिक जवाबदेही महसूस करेगा, निभा सकेगा। एक समस्या वादकारियों की तरफ से भी आती है। अब ऐसे भी मामले बहुत आने लगे हैं जिनमें किसी को परेशान करने अथवा सूचना का गलत प्रयोग करने के लिए इस कानून को माध्यम बनाया गया। सूचना कानून ने बहुतों को राहत दी है, इसलिए सरकार और जनता दोनों से ही सावधानियां अपेक्षित हैं।

[ स्थानीय संपादकीय : उत्तर प्रदेश ]