लद्दाख में पैंगोंग झील के उत्तरी और दक्षिणी छोरों से चीनी सैनिकों की वापसी, ड्रैगन की अकड़ हुई ढ़ीली
मौजूदा हालात में चीन पर एक सीमा से अधिक भरोसा नहीं किया जा सकता। उसने खुद अपनी हरकतों से भारत का भरोसा खोया है। यदि वह संबंधों में सुधार के लिए वास्तव में इच्छुक है तो फिर उसे सीमा विवाद सुलझाने में तत्परता और गंभीरता दिखानी होगी।
लद्दाख में पैंगोंग झील के उत्तरी और दक्षिणी छोरों से चीनी सैनिकों की वापसी का सिलसिला यही बताता है कि आखिरकार चीन की अकड़ ढीली पड़ी। यह अच्छा है कि चीन को कुछ देर से ही सही, यह समझ आ गया कि वह सीमा पर दादागीरी नहीं दिखा सकता। वह इसे भूल नहीं सकता कि गलवन घाटी में उसकी सेना के दुस्साहस का भारतीय सेना ने किस तरह मुंहतोड़ जवाब दिया था। अकड़ दिखा रहे चीन का ढीला पड़ना भारतीय सेना के शौर्य और भारत सरकार की दृढ़ता का परिचायक है।
चीनी सेना जिन इलाकों से पीछे हटने को तैयार हुई, उन्हें चीन अभी तक अपने कब्जे वाला क्षेत्र बता रहा था। साफ है कि उसके झूठ का भी पर्दाफाश हुआ। चूंकि अभी इसी पर सहमति बनी है कि पैंगोंग झील के छोरों से दोनों देशों की सेनाएं पुरानी स्थिति में लौटेंगी, इसलिए भारत को सतर्क रहना होगा। यह सतर्कता तब तक जारी रखनी होगी, जब तक चीन अन्य क्षेत्रों से अपनी सेनाओं को पिछले साल अप्रैल की स्थिति में नहीं ले जाता। भारत को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उसकी सैन्य टुकड़ियां वहां तक गश्त करने में समर्थ हों, जहां तक पहले करती थीं। यह सुनिश्चित किए गए बगैर भारतीय सेना को उन इलाकों से पीछे नहीं हटना चाहिए, जहां पहुंचकर उसने बढ़त कायम की।
मौजूदा हालात में चीन पर एक सीमा से अधिक भरोसा नहीं किया जा सकता। उसने खुद अपनी हरकतों से भारत का भरोसा खोया है। यदि वह संबंधों में सुधार के लिए वास्तव में इच्छुक है तो फिर उसे सीमा विवाद सुलझाने में तत्परता और गंभीरता दिखानी होगी। अगर वह सीमा विवाद सुलझाने के लिए आगे नहीं आता तो उसके इरादों को लेकर संदेह कायम रहना स्वाभाविक है।
भारत का जोर केवल सीमा विवाद सुलझाने पर ही नहीं, बल्कि आत्मनिर्भर अभियान को गति देने पर भी होना चाहिए। चीन का सही तरह सामना तभी किया जा सकता है, जब भारत आर्थिक रूप से और समर्थ बने। यह समय की मांग है कि भारत चीन के साथ अपने व्यापारिक घाटे को कम करने के लिए सक्रिय और सजग रहे। इसमें आम जनता की भी हिस्सेदारी होनी चाहिए।
यह विचित्र है कि सीमा पर तनाव घटाने को लेकर चीन से जो सहमति बनी, वह राहुल गांधी को रास नहीं आई। उन्होंने बिना विचारे यह बेतुका सवाल दाग दिया कि सरकार अपनी जमीन चीन के कब्जे में क्यों जाने दे रही है? आखिर जब रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह यह कह रहे हैं कि हम अपनी एक इंच जमीन भी किसी को नहीं लेने देंगे तब फिर उसकी उलट व्याख्या करना राजनीतिक शरारत नहीं तो और क्या है?