नीति अयोग द्वारा जमीनी परिस्थितियों की पारदर्शी विवेचना किए बगैर बिहार को देश के पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार ठहराना सतही सोच एवं कार्यप्रणाली का नमूना है। जगजाहिर है कि पिछली केंद्र सरकारें राजनीतिक कारणों से इस राज्य की अपेक्षाओं की अनदेखी करती रहीं। तीन दशक से अधिक समय तक यहां का जनादेश केंद्र में सत्तारूढ़ दलों के खिलाफ रहा जिसका बिहार को विकास के मामले में भारी खामियाजा भुगतना पड़ा। लंबे समय बाद राज्य और केंद्र में एक ही गठबंधन की सरकारें हैं। इससे हालात में किसी हद तक सुधार आया है यद्यपि स्थिति अब भी पूरी तरह संतोषजनक नहीं मानी जा सकती। दशकों से केंद्र सरकार की उपेक्षा झेल रहे राज्य का विकास में पिछड़ जाना लाजिमी है। इसी आधार पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार राज्य के लिए विशेष दर्जे की मांग करते रहे हैं जिसे अब तक स्वीकार नहीं किया गया। राज्य की तमाम विकास परियोजनाएं केंद्रीय सहायता के इंतजार में या तो फाइलों में बंद हैं या आधी-अधूरी पड़ी हैं। पटना एम्स और बोधगया आइआइएम का भी ठीक से विकास नहीं किया गया।

केंद्र सरकार द्वारा राज्य की उपेक्षा के ऐसे तमाम अन्य उदाहरण हैं। इन तथ्यों को नजरअंदाज करके बिहार को देश के पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। बिहार की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है जिसे हर साल सूखा और बाढ़ की दोहरी मार झेलनी पड़ती है। पिछले साल राज्य में रिकॉर्डतोड़ बाढ़ आई जिसके चलते कृषि का भारी नुकसान हुआ। राज्य सरकार ने इसकी भरपाई के लिए केंद्र सरकार से करीब 7600 करोड़ रुपये की मदद मांगी थी जिसके मुकाबले दो किस्तों में करीब 1700 करोड़ रुपये मिले। केंद्र सरकार को इन बातों पर गौर करना चाहिए। बिहार असाधारण मिट्टी और मेधा का प्रदेश है, पर संसाधनों की दृष्टि से कमजोर है। विभिन्न कारणों से राज्य में औद्योगिक निवेश भी बहुत कम है। ऐसे में राज्य को लगातार केंद्र सरकार की मदद मिलनी चाहिए। दुर्भाग्यपूर्ण है कि नीति आयोग सरीखी संस्था ने बिना सोचे-समझे राज्य को आहत करने वाला वक्तव्य जारी कर दिया। आयोग को यह बताना चाहिए कि बिहार को इस स्थिति से उबारने के लिए उसके पास क्या योजना है?

[ स्थानीय संपादकीय: बिहार ]