स्वच्छ भारत अभियान को तीन साल पूरे होने जा रहे हैं और इसके निमित्त जगह-जगह आयोजित होने लगे हैं स्वच्छता अभियान। सरकारी-गैर सरकारी संस्थाएं ही नहीं, सेना भी इनका हिस्सा बन रही है। परिवेश के साथ पर्यावरण को स्वच्छ और हरा-भरा रखने के संकल्प दोहराए जा रहे हैं। सामाजिक जागरुकता के लिए बैठकों और गोष्ठियों का आयोजन हो रहा है। कोशिशें हो रही हैं कि भारत निर्माण के इस महानुष्ठान में जन-जन की भागीदारी सुनिश्चित हो। होनी भी यही चाहिए। लोकतंत्र में बिना जन की भागीदारी के किसी भी अनुष्ठान के सफलता की गारंटी नहीं की जा सकती।

सच कहें तो इन तीन सालों में तस्वीर कमोबेश ऐसी ही रही है। स्वच्छता के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च हुए, लेकिन जमीनी स्तर पर कोशिशें अब भी ठहरी हुई हैं। नीति-नियंता परिवेश एवं पर्यावरण की स्वच्छता के दावे तो बड़े-बड़े करते हैं, लेकिन व्यवहार में ये दावे रस्मअदायगी ही साबित हो रहे हैं। ऐसा नहीं कि स्वच्छता को लेकर आमजन में जागरुकता नहीं आई। वह जागरूक हुआ, लेकिन सिर्फ बौद्धिक स्तर पर। व्यावहारिक स्तर पर सामाजिक स्वच्छता का भाव जागृत होना उसमें अब भी बाकी है। देखा जाए तो इसके लिए भी हमारे नीति-नियंता ही जिम्मेदार हैं। उनका उद्देश्य अब भी परिणाम पाना नहीं, बल्कि सिर्फ लक्ष्य हासिल कर फाइलों का पेट भरना है।

स्वच्छता अभियान उनके लिए महज फोटो सेशन कराने का जरिया बनकर रह गया है। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या हम सचमुच लक्ष्य प्राप्ति की ओर बढ़ रहे हैं। क्या हम अपनी जिम्मेदारियों के साथ न्याय कर पा रहे हैं। अगर इन सवालों के जवाब ‘हां’ में हैं तो फिर परिणाम क्यों नजर नहीं आ रहे। साफ है कि हम स्वच्छ भारत के नारे को आत्मसात ही नहीं कर पाए अथवा करना नहीं चाहते। ..तो फिर ऐसा क्या हो कि स्वच्छ भारत अभियान सफलता के सोपान तक पहुंचे। जाहिर है इसके लिए हमें स्वमूल्यांकन करना होगा। अपने भीतर समाज के प्रति जिम्मेदारी का भाव जगाना होगा। ऐसा तभी संभव है, जब हम शुरुआत अपने घर से करें। ‘आप भला तो जग भला’ की नीति का अनुसरण कर ही हम इस परम उद्देश्य की प्राप्ति सुनिश्चित कर सकते हैं। हम जिम्मेदार हो गए तो समाज खुद-ब-खुद जागरूक हो जाएगा। राष्ट्र की उन्नति का यही एकमात्र सूत्र है और सच कहें तो स्वच्छ भारत अभियान का हेतु भी यही है।

[ स्थानीय संपादकीय: उत्तराखंड ]