रिजर्व बैैंक के गवर्नर उर्जित पटेल ने भले ही अपने त्यागपत्र के पीछे निजी कारण गिनाया हो, लेकिन शायद ही कोई इस पर यकीन करे कि उनके इस फैसले की वजह वही है जो वह रेखांकित कर रहे हैैं। जिन हालात में उन्होंने त्यागपत्र दिया उसके चलते देश-दुनिया को यह संदेश जाना स्वाभाविक है कि केंद्र सरकार से अपने मतभेदों के कारण ही उन्होंने अपना पद त्याग दिया। हालांकि सरकार से अपनी असहमति और पद त्याग की हद तक जाने के संकेत वह पहले ही दे चुके थे, लेकिन कुछ समय पहले सरकार और साथ ही रिजर्व बैैंक की ओर से यह आभास कराया गया था कि दोनों पक्षों ने सुलह की राह पर चलने का फैसला किया है।

जानना कठिन है कि जब यह तय हो गया था कि मतभेद वाले मसलों पर एक समिति फैसला लेगी तब फिर यकायक ऐसा क्या हो गया कि उस समिति की रपट आने के पहले ही उर्जित पटेल ने इस्तीफा देना जरूरी समझा? जब सरकार लचीले रवैये का परिचय दे रही थी तो फिर ऐसा ही परिचय उन्होंने क्यों नहीं दिया? इन सवालों के साथ इस सवाल का जवाब भी शायद ही मिले कि उर्जित पटेल ने बैैंकों और गैर बैैंकिंग वित्तीय कंपनियों के साथ ही लघु उद्योगों को कर्ज उपलब्ध कराने जैसे मसलों पर सरकार की चिंताओं को सही तरह समझने की कोशिश की या नहीं? लोकतांत्रिक व्यवस्था में विभिन्न संस्थाओं के बीच मतभेद नए नहीं हैैं, लेकिन लोकतंत्र मतभेदों के बीच मिलकर काम करने की भी सीख देता है।

अच्छा होता कि उर्जित पटेल त्यागपत्र देने से बचते। उन्हें यह आभास होना चाहिए था कि उनके इस तरह अचानक पद छोड़ देने से आर्थिक जगत को कोई अच्छे संकेत नहीं जाएंगे। देश की अपेक्षा भी यही थी कि अर्थव्यवस्था को सुधारने के तौर-तरीकों को लेकर सरकार और रिजर्व बैैंक किसी सहमति पर पहुंचते।

हालांकि वित्त मंत्री के साथ खुद प्रधानमंत्री ने रिजर्व बैैंक के गवर्नर के तौर पर उनके योगदान को लेकर उनका आभार जताया है, लेकिन यह तय है कि सरकार को असहज स्थिति से दो-चार होना पड़ेगा। उर्जित पटेल रिजर्व बैैंक के पहले ऐसे प्रमुख नहीं जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा होने के पहले ही अपना पद छोड़ा हो, लेकिन उन्होंने जिन हालात में त्यागपत्र दिया उसके चलते सरकार को कहीं अधिक सवाल देने पड़ सकते हैैं। इसलिए और भी, क्योंकि इसके पहले रघुराम राजन ने भी सरकार से मतभेदों के चलते अपने अगले कार्यकाल के लिए हामी भरने से इन्कार कर दिया था। इस पर आश्चर्य नहीं कि उनके इस्तीफे की खबर आते ही विपक्षी दलों ने सरकार पर निशाना साधना शुरू कर दिया है। वे पहले से ही सरकार पर यह आरोप मढ़ने में लगे हुए हैैं कि यह सरकार संस्थाओं की स्वायत्तता खत्म कर रही है। यह बात और है कि इन्हीं दलों ने नोटबंदी के वक्त उर्जित पटेल को भी खरी-खोटी सुनाई थी।

समस्या केवल यह नहीं है कि सरकार को यह भरोसा दिलाना है कि वह रिजर्व बैैंक की स्वायत्तता के प्रति प्रतिबद्ध है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना है कि उर्जित पटेल के अचानक त्यागपत्र देने का बुरा असर बैैंकों में सुधार की प्रक्रिया पर न पड़े।