हाल ही में नीति आयोग ने राष्ट्रीय स्तर की स्वास्थ्य सूची जारी की है। मानकों के हिसाब से हेल्थ इंडेक्स में बड़े प्रदेशों के मुकाबले उत्तर प्रदेश का स्थान सबसे नीचे है। ये रैंकिंग पिछली सरकार द्वारा स्वास्थ्य क्षेत्र पर पर्याप्त ध्यान न देने के कारण आई है। मतलब कि प्रदेश बीमारू ही नहीं बीमार भी रहा है। हालांकि स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थनाथ सिंह ने दावा किया है कि वर्ष 2017-18 के इंडेक्स में प्रदेश ऊपर होगा और उनकी सरकार नीति आयोग के मानकों पर भी खरी उतरेगी, लेकिन उनका यह दावा काफी चुनौतीपूर्ण भी है। इतने बड़े प्रदेश को आनन-फानन में स्वास्थ्य सेवाओं का बड़ा बुनियादी ढांचा उपलब्ध करा पाना उतना आसान नहीं है। स्वास्थ्य मंत्री ने यह दावा प्रदेश को केंद्र सरकार से मिलने वाले 38 हजार करोड़ रुपये के आधार पर किया है। प्रदेश की योगी सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं पर पूरी तरह से ध्यान देना शुरू किया है। गोरखपुर में एम्स लगभग बनकर तैयार है। लखनऊ में विश्वस्तरीय कैंसर संस्थान विकसित करने के लिए टाटा मेमोरियल हास्पिटल सामने आया है। नोएडा में विश्वस्तरीय चाइल्ड पीजीआइ तैयार है।

प्रदेश में पांच और एम्स तथा 25 मेडिकल कॉलेज खोलने की योजना पर काम चल रहा है। मरीजों को पीएचसी, सीएचसी व जिला अस्पतालों में बेहतर चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध कराने का प्रयास किया जा रहा है। अस्पतालों में चिकित्सकों की कमी को भी दूर करने का प्रयास किया जा रहा है। सरकारी अस्पतालों में स्वास्थ्य सेवाएं सस्ती की जा रही हैं। कुल मिलाकर प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर एक साथ चौतरफा प्रयास शुरू हो गया है। ठोस नीति और रणनीति के तहत स्वास्थ्य सेवाओं का जाल बुना जा रहा है, लेकिन यह तभी संभव हो सकता है जब बुनियादी ढांचा खड़ा करने में और तेजी आए तथा मानकों का पूरा ध्यान रखते हुए अत्याधुनिक उपकरण अस्पतालों को मुहैया कराए जाएं। सबसे जरूरी यह कि ग्रामीण से लेकर शहरी क्षेत्रों तक के अस्पतालों में चिकित्सकों की मौजूदगी और उनके परफामेर्ंस पर पूरा नियंत्रण हो। देखने में यही आ रहा है कि चिकित्सक सरकारी अस्पतालों में कम निजी अस्पतालों या निजी प्रैक्टिस पर पूरा ध्यान दे रहे हैं। इस पर अंकुश जरूरी है।

[ स्थानीय संपादकीय: उत्तर प्रदेश ]