जम्मू-कश्मीर में भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन देने के सरकार के दावे फलीभूत होते नहीं दिख रहे हैं। सरकार ने गत वर्षो में भ्रष्टाचार के आरोप में फंसे दो सौ के करीब अधिकारियों व कर्मियों को जबरन सेवानिवृत्त कर दिया। लेकिन उन्हें बाहर का रास्ता दिखाने से पहले उनके खिलाफ तैयार भष्टाचार की फाइल में आरोपों को सही ढंग से पेश नहीं किया। नतीजा यह हुआ कि सभी आरोपी कोर्ट में चले गए। निचली कोर्ट से लेकर हाई कोर्ट में चली सुनवाई के दौरान सभी आरोपी साक्ष्यों के अभाव में बरी होते गए। विगत दिवस हाई कोर्ट ने जबरन सेवानिवृत्ति मामले में 15 अपीलें खारिज करते हुए सभी को नौकरियों में बहाल कर दिया। इससे सरकार के भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन देने की कवायद को जोर का झटका लगा है। इसके लिए राज्य सतर्कता आयोग से लेकर अभियोजन पक्ष काफी हद तक जिम्मेदार हैं। सतर्कता आयोग ने आरोपियों के खिलाफ पुख्ता सबूत नहीं जुटाए, जबकि अभियोजन पक्ष अदालतों में कोई ठोस तर्क नहीं पेश कर पाया। इस कारण सभी आरोपियों को साक्ष्यों के अभाव का लाभ मिला। कहीं न कहीं सरकार भी आरोपियों के खिलाफ संजीदा नहीं दिखी। यहां तक की राज्य सरकार ने हाल ही में भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में दायर स्पेशल लीव पेटिशन को भी वापिस ले लिया। अदालत ने भी सुनवाई से पहले ही केस को खारिज कर दिया। इससे तो लगता है कि सरकार ने अपरोक्ष रूप से आरोपियों को बचाने की कोशिश की। इससे तो सरकार के भ्रष्टाचार मुक्त समाज के दावे खोखले नजर आते हैं। प्रशासन को भ्रष्टाचार से मुक्त बनाने के लिए पीडीपी और भाजपा ने अपने घोषणा पत्रों में जो वादे किए थे, उन्हें पूरा करने के लिए यह जरूरी है कि आरोपियों पर शिकंजा कसा जाए।

[ स्थानीय संपादकीय: जम्मू-कश्मीर ]