साफ-सफाई के प्रति राज्य सरकारें बेपरवाह, दिल्ली कचरे में डूब रही है और मुंबई पानी में
देश के शहर बेतरतीब विकास का पर्याय और बदहाली का गढ़ बनते जा रहे हैैं।
स्वच्छ भारत अभियान के साथ शहरों को स्मार्ट बनाने के इस दौर में राज्य सरकारें साफ-सफाई के प्रति कितनी बेपरवाह हैैं, इसका पता इससे चलता है कि सुप्रीम कोर्ट की नोटिस के बाद भी मेघालय, ओडिशा, केरल, पंजाब, बिहार, छत्तीसगढ़, हिमाचल, गोवा और पश्चिम बंगाल ने ठोस कचरे के निस्तारण पर अपना हलफनामा नहीं दाखिल किया। नाराज सुप्रीम कोर्ट ने इन सभी राज्यों पर एक-एक लाख रुपये का जुर्माना तो लगाया ही, यह कहकर नीति-नियंताओं को शर्मसार भी किया कि दिल्ली कचरे में डूब रही है और मुंबई पानी में। ध्यान रहे कि इसी मसले पर पिछली सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने कचरा निस्तारण पर केंद्र सरकार के आठ सौ से अधिक पन्नों के दस्तावेज को एक तरह का कचरा करार दिया था।
सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद भी साफ-सफाई के प्रति सरकारों के ऐसे रवैये से यह साफ है कि शहरों को स्मार्ट बनाना तो दूर रहा, उन्हें सामान्य तौर पर साफ-सुथरा बनाए रखने की भी चिंता नहीं की जा रही है। इसके प्रमाण आए दिन सामने भी आते रहते हैैं। जैसे दिल्ली के नीति-नियंताओं को यह नहीं सूझ रहा कि कचरे का क्या किया जाए वैसे ही मुंबई के नीति-नियंता बारिश से होने वाले जल भराव से निपट पाने में नाकामी का शर्मनाक उदाहरण पेश कर रहे हैैं। यदि दिल्ली-मुंबई सरीखे देश के प्रमुख शहर बदहाली से मुक्त नहीं हो पा रहे तो फिर इसकी उम्मीद करना व्यर्थ है कि अन्य शहर कचरे, गंदगी, बारिश से होने वाले जलभराव, अतिक्रमण, यातायात जाम आदि का सही तरह सामना कर पाने में सक्षम होंगे। आखिर इस पर किसी को हैरानी क्यों होनी चाहिए कि जानलेवा प्रदूषण से जूझते शहरों में हमारे शहरों की गिनती बढ़ती जा रही है?
नगर निकाय, राज्य सरकारें और साथ ही केंद्र सरकार शहरी विकास के बारे में चाहे जैसे दावे क्यों न करे, देश के शहर बेतरतीब विकास का पर्याय और बदहाली का गढ़ बनते जा रहे हैैं। यदि नगर नियोजन की घातक अनदेखी का सिलसिला कायम रहा तो देश के बड़े शहर तो रहने लायक ही नहीं रह जाएंगे।
यह किसी त्रासदी से कम नहीं कि समय के साथ शहरों की समस्याएं बढ़ रही हैैं और उन्हें ठीक करने के दावे महज जुमले साबित हो रहे हैैं। शहरीकरण तब घोर अव्यवस्था से दो-चार है जब हमारे नेता एवं नौकरशाह इससे परिचित हैैं कि शहर ही विकास के इंजन हैैं। वे इससे भी अवगत हैैं कि शहरों की ओर ग्रामीण आबादी के पलायन की रफ्तार और तेज ही होनी है।
जब कोशिश इसके लिए होनी चाहिए कि शहर नियोजित विकास का उदाहरण पेश करते हुए आबादी के बढ़ते बोझ को वहन करने की क्षमता विकसित करें तब वे असुविधाजनक नगरीय जीवन का ठौर बन रहे हैैं। इसका मूल कारण है शहरी ढांचे को ठीक करने के लिए जरूरी इच्छाशक्ति का अभाव। इस अभाव के साथ नियोजित विकास के करीब-करीब हर पैमाने का उल्लंघन करने की प्रवृत्ति ने शहरों की समस्याओं को कहीं अधिक गंभीर बनाने का काम किया है। यदि जिन लोगों पर शहरों को संवारने की जिम्मेदारी है उन्हें जवाबदेह नहीं बनाया गया तो हालात और खराब होंगे।