उत्तराखंड में स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर बनाने के लिए सरकारी स्तर पर कवायद जारी है। वर्ष 2020 तक के लिए रोडमैप तैयार है और लक्ष्य तय कर लिए गए हैं। योजना के तहत लक्ष्य है कि प्रत्येक गांव के दस किलोमीटर के दायरे में स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध हो। निसंदेह इसकी जरूरत भी है। उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य में बीते दिनों खुद मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली पर अपनी पीड़ा बयां कर चुके हैं। जाहिर है सेहत का सवाल सवरेपरि है और हालात बेहद गंभीर। गुरुवार को चमोली जिले के गैरसैंण में एक गर्भवती महिला की जान चली गई। जिस 108 सेवा को खुशियों की सवारी जैसे विशेषण से नवाजा गया, बदनसीब गर्भवती को वह मिली ही नहीं। 108 सेवा के जिला प्रभारी ने इसका जो कारण बताया वह भी गौर करने लायक है। उनका कहना है कि एंबुलेंस तेल भरवाने गई थी, इसलिए उपलब्ध नहीं हो पाई। सवाल यह है कि क्या आपात कालीन सेवा में चलने वाले वाहन को हर वक्त तैयार नहीं रहना चाहिए। क्या यह वजह किसी के गले उतर सकती है कि एंबुलेंस तेल भरवाने गई थी इसलिए उपलब्ध नहीं हो पाई। यह पहला मौका नहीं है जब 108 सेवा की हीलाहवाली जिंदगी पर भारी पड़ी हो।

इससे पहले देहरादून जिले के चकराता और चमोली के गैरसैंण और उत्तरकाशी जिले में भी ऐसे मामले देखने को मिलते रहे हैं। टिहरी के दूरस्थ पहाड़ी क्षेत्र में एक महिला अस्पताल के बाहर बच्चे को जन्म दे देती है और चिकित्सक उसे भर्ती करने को तैयार नहीं होते। ऐसे उदाहरण एक-दो नहीं, कई मिलेंगे। डॉक्टर और पैरा मेडिकल स्टाफ पहाड़ चढ़ने को तैयार नहीं है। प्रदेश में योजनाओं की कमी नहीं है। दूरस्थ क्षेत्रों के लिए डंडी कंडी एंबुलेंस जैसी योजनाएं भी बनीं। दूसरे राज्यों से डॉक्टरों को लाने पर विचार किया गया, लेकिन अहम् सवाल योजनाओं को धरातल पर उतारने का है। सवाल संवदेनशीलता का है। दरअसल, यदि सिस्टम थोड़ा भी संवेदनशील हो जाए तो कई जानें बचाई जा सकती हैं। अब एक बार फिर योजनाएं बन रही हैं और बननी भी चाहिए, लेकिन सबसे बड़ी जरूरत यह है कि तंत्र संवेदनहीन न बने। योजनाओं को धरातल पर उतारने के लिए न केवल उन पर नजर रखी जानी चाहिए, बल्कि समय-समय पर प्रगति भी समीक्षा भी होनी चाहिए। कुल मिलाकर सेहत के मसले पर व्यावहारिक पहलुओं का बारीकी से अध्ययन कर दीर्घकालिक नीति बनाने की जरूरत है।

[ स्थानीय संपादकीय: उत्तराखंड ]